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श्रावक के षट्आवश्यक
ऐसे क्या पाप किए ! ___ आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार की तात्पर्य टीका में स्पष्ट उल्लेख किया है कि "अनन्त ज्ञानादि महान गुणों के द्वारा जो तीनों लोकों में महान हैं वे भगवान अरहंत त्रिलोक गुरु हैं।" ।
आचार्य उपाध्याय व साधु सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र गुणों द्वारा बड़े हैं अतः गुरु हैं। इस प्रकार जो साधु तप शील संयम में श्रेष्ठ व २८ मूलगुणों के धारक हैं वे साक्षात् गुरु हैं।
उपकारीजनों को भी गुरु माना गया है। हरिवंश पुराण में लिखा है - "उस रत्नद्वीप में जब चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के समक्ष चारुदत्त आदि बैठे थे तब स्वर्गलोक से दो देव आये; जिन्होंने मुनि के पहले चारुदत्त को नमस्कार किया तो पूछा कि हे देवो! तुम दोनों ने मुनिराज को छोड़कर श्रावक को पहले नमस्कार क्यों किया? देवों ने इसका कारण कहा कि - इन चारुदत्त ने हम दोनों को जिन धर्म का उपदेश दिया है, इसलिए ये हमारे साक्षात गुरु हैं।"
श्रावक के षट् आवश्यकों में गुरूपासना दूसरा आवश्यक कर्तव्य है। उपर्युक्त पंच परमेष्ठी स्वरूप गुरुओं की यथायोग्य विनय आदर सत्कार अथवा भक्ति पूजादि करना गुरूपासना है। सम्यग्दर्शन 'ज्ञान' चारित्रादि की प्राप्ति में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के धारक पूज्य पुरुषों की विनयभक्ति ही सच्चे निमित्त हैं। जब विषयाभिलाषियों को विषय सामग्री जुटाने की क्रिया बुद्धिपूर्वक प्रयत्न पूर्वक देखी जाती है तो आत्माभिलाषियों द्वारा यह काम प्रयत्नपूर्वक क्यों नहीं किया जाना चाहिए, करना ही चाहिए।
यहाँ ज्ञातव्य है कि यदि हम मुनियों (गुरुओं) का सच्चा स्वरूप ही नहीं जानेंगे तो सच्ची भक्ति कैसे होगी? अतः सच्ची गुरु भक्ति के लिए सच्चे गुरु का यथार्थ स्वरूप जानना भी अति आवश्यक है। समन्तभद्रस्वामी ने श्रावकाचार में सच्चे गुरु का स्वरूप लिखा है -
“विषयाशावशातीतो निरारंभो परिग्रहः । ज्ञान ध्यान तपो रक्तः तपस्वी स प्रसस्यते ।।
पंचेन्द्रियों के विषयों की आशा से अतीत आरम्भ और परिग्रह से रहित, ज्ञान ध्यान व तप में लीन तपस्वी साधु ही प्रशंसा के योग्य हैं। मेरी भावना में भी ऐसा ही लिखा है -
विषयों की आशा नहिं जिनके, साम्य भाव धन रखते हैं। निज पर के हित साधन में जो निश दिन तत्पर रहते हैं। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुख समूह को हरते हैं।।
गुरु के प्रसाद से ही या उनके उपदेशों से ही तो हम परमात्मा और आत्मा का स्वरूप समझ पाते हैं।
सद्गुरु के उपदेश बिना तत्वज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं। भले ही यह कथन निमित्त का है परन्तु निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी तो कोरी कल्पना नहीं है।
प्रश्न :- सच्चे गुरु की पहचान क्या है?
उत्तर :- सच्चे गुरु की पहचान की कोई समस्या नहीं है। स्वर्ण के पारखी को स्वर्ण और पीतल का भेद करने में, जौहरी को काँच व हीरा में भेद करने में एक क्षण भी नहीं लगता। पहचान के लिए छहढाला की निम्न पंक्तियाँ स्मरणीय हैं - “अरि-मित्र, महल-मसान कंचन-कांच, निन्दन-थुतिकरन ।
अर्धाव तारन-असि प्रहारन में सदा समता धरन । सच्चे साधु शत्रु-मित्र में, महल-मसान में, कंचन-कांच में, निन्दा करने वालों और स्तुति करने वालों में, पूजा करने वाले या तलवार का वार करने वाले में समान रूप से समता भाव रखते हैं। __ इसप्रकार गुरु के स्वरूप को पहचान कर उनकी उपासना करना, विनय भक्ति करना दूसरा आवश्यक है।
३. स्वाध्याय - सत् शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना, वाँचना, पूछना, मनन करना, उपदेश देना आदि स्वाध्याय कहा जाता
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