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ऐसे क्या पाप किए ! ५. दीपक के निकट कोई पदार्थ हो तो दीपक उसको प्रकाशित कर सके और दूर हो तो प्रकाशित न कर सके परन्तु ज्ञान का स्वभाव ऐसा नहीं है। ज्ञानस्वभाव तो एक जगह रहकर भी लोकालोक को जान सकता है । इसीकारण भक्त कहता है कि “हे प्रभो! अन्य ज्ञेय पदार्थ, चाहे वे समीप हों या दूर हों तो भी मैं उनको ज्ञाता होकर सदा जानता ही रहूँ - ऐसा स्वभाव प्रगट हो जावे।"
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६. दीपक के निकट सोने का ढेर हो तो हर्ष से दीपक का प्रकाश बढ़ता नहीं है तथा कोयले का ढेर हो तो विषाद से प्रकाश घटता नहीं है। दीपक तो उन दोनों को ही समानरूप से प्रकाशित करता है; उसीप्रकार ज्ञानदीपक का प्रकाश अनुकूल पदार्थ हो तो बढ़ जाये और प्रतिकूल पदार्थ हो तो घट जाये ऐसा कभी नहीं होता, इसलिए भक्त ऐसा सोचता है कि “सर्वपदार्थों को मैं स्वज्ञान द्वारा ज्ञाता दृष्टापने जानता ही रहूँ; प्रतिकूलता से और अनुकूलता से मैं प्रभावित न हो जाऊँ।”
७. जैसे दीपक स्वभाव से ही स्व-परप्रकाशक है, वैसे ज्ञानदीपक भी स्वभाव में ही स्व- परप्रकाशक है, इसलिए भक्त भावना भाता है कि "मेरा ज्ञानदीपक सदाकाल प्रकाशवान ही रहे, अन्य पदार्थ व मोहराग-द्वेष आदि भावों का कर्ता न बने।"
इसीप्रकार धूप और फल समर्पण के समय भक्त विचारता है कि अष्टकर्मों को तपस्वचरणरूप ज्वाला में जलाकर मोक्षफल प्राप्त करूँ । इसप्रकार पूजा का मूल प्रयोजन तो मुक्ति प्राप्त करना ही है।
जीव जबतक अपने शुद्धस्वरूप में लीन नहीं रह सकता, उसको सर्वज्ञ परमात्मा की पूजा, भक्ति आदि का शुभभाव आये बिना नहीं रहता, किन्तु ज्ञानी समझते हैं कि ये शुभभाव भी पुण्यबंध के कारण हैं, उनका भी अभाव कर जब अपने शुद्धस्वरूप में लीनता करूँगा, तभी निश्चय भावपूजा होगी और यही धर्म है, इसलिए यही करनेयोग्य है।
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श्रावक के षट् आवश्यक
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यहाँ ज्ञातव्य है कि पूजा के सभी (अष्ट) द्रव्य तीनप्रकार के प्रतीक हैं - १. गुणों के प्रतीक, २. भोगों के प्रतीक और ३. आलम्बन के प्रतीक तथा जिसप्रकार जिनमन्दिर समवसरण का प्रतीकरूप है, जिनप्रतिमा अरहंत भगवान की प्रतीकरूप है, पुजारी स्वयं इन्द्र के प्रतीकरूप हैं, जिसप्रकार इन सबमें स्थापना निक्षेप से ऐसा प्रतीकरूप व्यवहार होता है, उसीप्रकार अष्टद्रव्य में भी स्थापना निक्षेप से जल में क्षीरसागर के जल की स्थापना कर ली जाती है, उज्ज्वल धुले चावलों में अक्षत की स्थापना एवं केशर से रंगे चावलों में पुष्पों की तथा चन्दन के ताजे बुरादे में ही धूप की स्थापना की जाती है, क्योंकि किसी भी प्रकार की हिंसोत्पादक सामग्री से पूजा नहीं की जाती।
पूजा का उद्देश्य - १. वीतरागी देव की सच्ची पूजा की सार्थकता सर्वप्रकार से रागादि भावों का आदर छोड़कर वीतरागी बनने में है ।
२. सर्वज्ञ की सच्ची पूजा अल्पज्ञ पर्याय का आदर छोड़कर सर्वज्ञता प्रकट करने में है।
३. वीतरागी प्रभु की सच्ची प्रभुता प्राप्त करने में है। यही पूजा का उद्देश्य है और इसी में पूजा की सफलता व सार्थकता है।
२. गुरूपासना :- गुरु शब्द का अर्थ महान होता है। लोक में अध्यापकों को गुरु कहते हैं। माता-पिता भी गुरु कहलाते हैं; परन्तु धार्मिक प्रकरण में आचार्य, उपाध्याय व साधु ही गुरु हैं; क्योंकि वे जीवों को उपदेश देकर अथवा बिना उपदेश दिए ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याण का वह मार्ग बताते हैं, जिसे पाकर जीव सदा के लिए कृतकृत्य हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त सम्यक दृष्टि श्रावक भी उपर्युक्त कारणवश ही गुरु-संज्ञा को प्राप्त होते हैं । परम गुरु, दीक्षा गुरु, शिक्षा गुरु आदि के भेद से भी गुरु कई प्रकार के होते हैं।