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ऐसे क्या पाप किए ! २. चन्दन को कूड़े के ढेर पर रखा जावे, घिसा जावे, काटा जावे तो वह काटनेवाली कुल्हाड़ी को भी सुगन्धमय बना देता है । चन्दन द्वारा पूजा करते समय भक्त यह भावना भाता है कि “चंदन के वृक्षवत् बाह्य अनेकप्रकार की प्रतिकूलताएँ आने पर भी मैं उनका ज्ञाता दृष्टा बना रहूँ, मैं अपने ज्ञानमय स्वभाव को कभी न छोड़ें।"
अक्षत - १. अक्षत चढ़ाते समय भक्त की यह भावना होती है कि वह अक्षत की भाँति अजन्मा हो जाय। जिसतरह अक्षत बोने पर उगते नहीं हैं, उसी प्रकार मेरा आत्मा पुनर्जन्म न ले ।
२. अक्षत अर्थात् चावल जैसे उज्ज्वल हैं, उनके ऊपर अब धान का छिलका नहीं, चावल के ऊपर कन नहीं, लालिमा नहीं; उसी प्रकार मेरा आत्मा भी शरीर, राग-द्वेष और भेदभावों से भिन्न एक अखण्ड, अभेद उज्ज्वल ज्योति स्वरूप है। कहा भी है
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"उज्ज्वल हूँ कुन्द धवल हूँ, प्रभु, पर से न लगा हूँ किंचित भी।"
३. अक्षत का आलम्बन लेकर भक्त भगवान से कहता है कि - उत्तम अक्षत तो प्रभुवर आप ही हो, जो कभी भी क्षत को प्राप्त नहीं होते, आपकी पूर्ण निर्मल पर्याय कभी मलिन नहीं होती।
पुष्प - पुष्प समर्पण करते समय भक्त भावना भाता है। जिसतरह यह पुष्प अन्दर बाहर एक समान सुकोमल है, सुगन्धित है उसीप्रकार मेरा हृदय भी अन्दर-बाहर एक समान सुकोमल (सरल) और जगत को सुखद सौरभ से भरने में समर्थ हो जावे ।
लोक में पुष्प को काम का प्रतीक माना गया है अतः भक्त भावना भाता है कि "मैं काम की पीड़ा नाश करने हेतु यह पुष्प आपके चरणों की साक्षी से त्यागता हूँ। अर्थात् कामवासना को कम करने का संकल्प करता हूँ। "
नैवेद्य :- लोक में नैवेद्य क्षुधा पूर्ति का साधन है, भक्त कहता है कि "मैंने अनादिकाल से सभी तरह के भक्ष्याभक्ष्य पदार्थों का भक्षण किया
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श्रावक के षट् आवश्यक
तो भी मेरी क्षुधा शान्त नहीं हुई। अतः अब मैंने समझा कि सचमुच क्षुधा रोग मिटाने का उपाय भर पेट खाना नहीं है, अतः मैं सर्व प्रकार के व्यंजनों का त्याग करने की भावना भाता हुआ यह नैवेद्य समर्पित करता हूँ और क्षुधा रोग से रहित स्वभाव वाले आत्मा की शरण में जाता हूँ।"
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दीपक-दीपक द्वारा पूजा करते समय भक्त की भावना होती है कि१. " जैसे दीपक में जबतक तेल (स्नेह) है, तबतक वह जलता है, उसीप्रकार जबतक मुझमें स्नेह (राग) है, तबतक मुझे संसार में त्रिविध ताप से जलना पड़ेगा-परिभ्रमण करना पड़ेगा। हे भगवन्! दीपक द्वारा आपकी पूजा करते समय मैं भावना भाता हूँ कि मैं राग का सर्वथा अभाव करके संसार परिभ्रमण से छूट जाऊँ ।
२. लौकिक दीपक के लिए तेल, घी चाहिए। जबतक तेल-घी हो, तभी तक प्रकाश देता है, किन्तु चैतन्यदीपक के लिए अन्य किसी भी बाह्य पदार्थ की किञ्चित्मात्र भी आवश्यकता नहीं है, वह स्वयं प्रकाशमान है। दीपक द्वारा पूजा करते समय भक्त कहता है कि “मैं भावना भाता हूँ कि मेरा चैतन्यदीपक सदा स्वयं प्रकाशित रहे और अन्य कोई भी परद्रव्यपरभाव की उसे आवश्यकता कभी न हो।”
३. “रत्नदीपक के अतिरिक्त जितने भी अन्य लौकिक दीपक हैं, वे सब प्रचण्ड वायु के कारण बुझ जाते हैं; किन्तु रत्नदीपक स्वयं प्रकाशमान होने के कारण वह प्रचण्ड वायु से भी नहीं बुझता; भक्त कहता है ि "वैसे ही मेरे चैतन्यदीपक का प्रकाश अनन्त प्रतिकूलताओं से भी समाप्त न हो।"
४. दीपक द्वारा पूजा करते समय भक्त भावना भाता है कि “आपके केवलज्ञान सूर्य से सम्यग्ज्ञान पाकर मेरा छोटा-सा ज्ञानदीपक सदाकाल अन्तर में प्रकाशमान रहे। जैसे दीपक का प्रकाश अन्धकार का नाश करनेवाला है। वैसे ही ज्ञानदीपक द्वारा मेरे मोहान्धकार- अज्ञानतिमिर का सर्वथा नाश हो और पदार्थ का स्वरूप जैसा है, वैसा ही मेरे ज्ञान में प्रतिभासित हो।"