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________________ २६ ऐसे क्या पाप किए ! सभी करते हैं। परन्तु आत्मानुभूति बिना दुख दूर नहीं हुआ । कवि ने ठीक ही कहा है – “जिनदर्शन कछु और है, यह जिनदर्शन नाहिं ।” जिसप्रकार दवाखाने तक जाकर आ जाने से, डॉक्टर को झुककर नमस्कार कर लेने से रोग नहीं मिट जाता, बल्कि डॉक्टर जो कुछ कहे उस पर अमल करने से ही रोग मिटता है, उसी प्रकार मन्दिर में जाने से मूर्ति के समक्ष झुककर नमन करने से काम नहीं चलेगा, परन्तु मूर्तिमान अरहंत परमात्मा की परमशान्त मुद्रा के दर्शन का निमित्त पाकर “मैं भी ऐसा ही निर्विकारी, परम शान्त स्वरूप शुद्ध आत्मा हूँ” ऐसा विचार कर निजानुभूति करें तभी जन्म-मरण का रोग मिट सकता है। इसके लिए प्रथम भूमिका में आत्मानुभवी, ज्ञानी आत्माओं द्वारा लिखे गये मंगलमय स्तोत्रों, पूजापाठों का रहस्य समझने का प्रयत्न करना होगा। क्योंकि सच्ची समझ बिना यथार्थ भक्ति भी नहीं हो सकती है। ज्ञानी जीव को आत्मापरमात्मा के गुणों की पहिचान होने से गुणों में सहज अनुराग हो जाता है। और “गुणेषु अनुरागः भक्ति” अर्थात् गुणों में अनुराग होना ही भक्ति है। ऐसी भक्ति मुक्ति के पथिक साधक जीवों के मन में सहज ही हुआ करती है। यद्यपि भक्ति का भाव शुभ भाव है, तथापि भूमिका के अनुसार जब तक शुद्धोपयोग में स्थिर नहीं रह पाते तब तक तीव्र राग ज्वर से बचने के लिए और कुस्थान में राग के निषेध के लिए अर्थात् अशुभ से बचने के लिए ज्ञानी जीव बुद्धिपूर्वक भी देव-शास्त्र-गुरु का आलंबन लेते हैं, दर्शन-पूजन में अपने उपयोग को रमाते हैं, परन्तु ज्ञानियों की इन क्रियाओं को देखकर भोले जीवों ने तो केवल दर्शन-पूजन करने में ही धर्म मान लिया है और दर्शन पूजन के नियम का निर्वाह करते रहते हैं । उसके यथार्थ स्वरूप पर ध्यान नहीं देते इसी कारण उन्हें देव-दर्शन के यथार्थ फल की प्राप्ति नहीं हो पाती । ॐ नमः । (14) ३ श्रावक के षट् आवश्यक श्रावक : - श्रद्धावान, विवेकवान एवं विषयों से विरक्तचित्त गृहस्थ को श्रावक कहते हैं। ये श्रावक तीन प्रकार के होते हैं - १. पाक्षिक, २. नैष्ठिक, ३. साधक | जिनधर्म का पक्ष मात्र करनेवाला पाक्षिक श्रावक है। प्रतिमाधारी नैष्ठिक श्रावक है, इसमें वैराग्य की प्रकर्षता से उत्तरोत्तर ११ श्रेणियाँ होती हैं। जो श्रावक प्रसन्नचित्त से जीवन के अन्त में मनवचन - काय को एकाग्र करके अन्तर्मुखी उपयोग द्वारा आत्मचिन्तन और परमात्मा का स्मरण करते हुए साम्यभाव धारण करता है, वह साधक श्रावक है। ऐसे समाधि के साधक जीवों का जीवन तो सुखी होता ही है, मरण भी समाधिमरणपूर्वक होता है। आवश्यक :- जिस तरह शारीरिक शुद्धि के लिए मल-मूत्र क्षेपण, स्नान, दन्तधोवन और आँख-नाक-कान- कंठ आदि अंगों की सफाई हेतु शारीरिक षट् क्रियायें आवश्यक हैं, उसीप्रकार आत्मा में उत्पन्न होने वाले रागादि विकार के शोधन के लिए देवपूजा, गुरूपासना आदि धार्मिक षट् आवश्यक क्रियायें भी अति आवश्यक हैं। एतदर्थ यहाँ उन्हीं षट्आवश्यकों का स्वरूप एवं उनकी उपयोगिता पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है। विविध शास्त्रों में षट्आवश्यकों की विविध प्रकार की व्याख्यायें प्रस्तुत की गईं हैं, जिनका तात्पर्य मात्र एक अपने उपयोग को विषय कषाय एवं राग-द्वेष से मुक्त रखना है। मूलाचार ग्रन्थ में लिखा है “जो राग-द्वेषादि कषाय के वशीभूत नहीं है वह 'अवश' है। उस अवश का जो आचरण है वह आवश्यक है।"१ १. ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासंगति बोधब्बा ।।५१५ ।।
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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