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ऐसे क्या पाप किए ! जाओ अर्थात् पर में कर्तृत्त्व का अहंकार करना छोड़ दो। “मैं पर का कुछ भला-बुरा कर सकता हूँ।" - यह मान्यता तज दो।
इसीप्रकार - इन पैरों से भी सुख की तलाश से खूब भटका।
चारों ओर सुख शान्ति की तलाश में खूब भाग-दौड़ की, किन्तु कहीं भी सुख हाथ नहीं आया और जब अन्तर में झाँककर देखा तो “अनन्त सुख शान्ति का सागर तो आप ही है" इसे पाने के लिए कहीं जाना नहीं है, कहीं से आना नहीं है - ऐसा विचारकर ही मानों भगवान जिनराज अचल हो गये हैं, चलना-फिरना छोड़ दिया है।
निश्चल भाव से अचलवत् स्थिर आपके चरण युगल इस बात को दर्शाते हैं कि दौड़ धूप करना व्यर्थ है। पावों से भाग दौड़ द्वारा कहीं कुछ प्राप्त करने लायक है ही नहीं। आत्मा तो स्वयं अपने में ही परिपूर्ण हैं - इसी बात का सन्देश देने के लिए ही मानो जिनराज अचल हो गये हैं। __ तथा नेत्रों को नासाग्र इसलिए किया है कि अब अतीन्द्रियज्ञान एवं आनन्द की उपलब्धि हो गई है। अब इन इन्द्रियों का क्या काम? दूसरी बात यह भी तो है कि ये नेत्र (चर्मचक्षु) जड़ पुद्गल को ही तो जानते हैं, जान सकते हैं। मैं तो अरस, अरूपी, अमूर्तिक महा पदार्थ हूँ - जो नेत्रों द्वारा गम्य नहीं है, एतदर्थ अब इन नेत्रों से कुछ भी प्रयोजन नहीं है। और कानों से भी क्या सुनना बाकी रहा, अतः कर्णेन्द्रिय का भी अवलम्बन तोड़कर जिनराज आत्म साधना हेतु ध्यानस्थ हो गये हैं।
जिनेन्द्र दर्शन करते हुए आत्मार्थीजन इसप्रकार चिन्तवन करते हुए देव दर्शन करें तो ही जिनदर्शन का यथार्थ लाभ हो सकता है।
देव दर्शन के संदर्भ 'देव' शब्द से मुख्यतया पंचपरमेष्ठी का ग्रहण किया गया है यद्यपि इस क्षेत्र व काल में अरहंत परमात्मा के साक्षात् दर्शन का सुयोग नहीं है, तथापि उनकी आदर्श रूप जिन प्रतिमा के दर्शन का सुयोग तो है ही। उनकी आदर्श रूप जिन प्रतिमा का लाभ भी साक्षात् अरहन्तवत् ही है, कहा भी है :
नित्य देवदर्शन क्यों? “जिन प्रतिमा जिन सारखी, कही जिनागम मांहि।" - बनारसीदास
दूसरी बात यह भी तो है कि समवसरण में अरहंत के साक्षात् दर्शन करने वाले भी तो इन चर्म चक्षुओं से परमौदारिक शरीर को ही तो देखते हैं। उनकी आत्मा का तो वहाँ भी दर्शन संभव नहीं है। मूर्तिक पदार्थों का ज्ञान करने वाले नेत्र अमूर्तिक आत्मा को कैसे देख सकते हैं?
हाँ, अरहंत परमात्मा की परम शान्त मुद्रायुक्त जिन प्रतिमा ही भव्य जीवों के लिए आत्मानुभूति में निमित्त कारण हो सकती है अतएव हमें नियमित देव-दर्शन करना आवश्यक है।
यहाँ 'दर्शन' शब्द का अर्थ भी मात्र देखना या सामान्यावलोकन नहीं है। इस देव-दर्शन के प्रकरण में दर्शन शब्द भी अपने एक विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दर्शन शब्द में स्तुति, वंदना, अर्चन एवं मननचिन्तन आदि गर्भित हैं। मात्र मूर्ति का अवलोकन कर लेने से देव-दर्शन की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो जाती । मूर्ति तो मात्र निमित्त है, मूर्ति के माध्यम से परमात्मा के गुणों का स्मरण करके अपने निजस्वरूप को पहचानना, आत्मावलोकन करना देव-दर्शन का मुख्य प्रयोजन है।
जब तक अपना उपयोग स्व-सन्मुख न हो, तब तक साधक जीव नाना प्रकार के आलम्बनों द्वारा अपने उपयोग को विषय-कषाय से बचने के लिए जो भी पूजन-पाठादि के प्रयत्न करता है वे सब देवदर्शन के ही रूपान्तर हैं। वे विविध आलम्बन निम्नलिखित हो सकते हैं -
धवल मंगल गानों से गुंजायमान भव्य जिनालय, परमशान्त मुद्रा से युक्त जिन प्रतिमा, भक्तिमय गीत-संगीत, स्तुति पाठ, पूजन सामग्री से भरे थाल तथा झाँझ-मजीरा आदि वाद्ययन्त्रों द्वारा पूजा-पाठ करना। ___इस तरह हम देखते हैं कि देव-दर्शन का पेटा बहुत बड़ा है। देवदर्शन की जो अपार महिमा शास्त्रों में गाई गई है, क्या वह मात्र मूर्ति अवलोकन की है? देवदर्शन का मूल उद्देश्य तो विषय-कषाय से बचना और आत्मानुभूति प्राप्त करना है। मूर्ति का अवलोकन तो प्रतिदिन
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