SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ ऐसे क्या पाप किए ! मुद्रा भव्य जीवों के लिए आत्मानुभूति में निमित्त होती है। एक पद में भी पं. जी ने जिन दर्शन की यथार्थ महिमा दर्शाई है - “निरखत जिन चन्द्र वदन स्वपद सुरुचि आई प्रगटी निज आन की पिछान, ज्ञान भान को उदोत होत मोह यामनी पलाई । । निरखत. ।। " भगवन! आपके मुखरूपी चन्द्र के निरखते ही मुझे अपनी रुचि उत्पन्न हो गई, अपने पराये का भेदज्ञान उत्पन्न हो गया, ज्ञानरूपी सूर्य प्रगट हो गया तथा मोहरूपी अंधकारमयी रात्रि नष्ट हो गई। ऐसे एक नहीं अनेक ज्ञानियों ने अपने अंतरंग में दर्शन की फलानुभूति करके अपने उद्गार प्रस्फुटित किये हैं.... देखिये सोलह कारण पूजा की जयमाला - "जो अरहंत भक्ति मन आने, सो जन विषय कषाय न जाने" अर्थात् जो अरहंत की भक्ति को मन में धारण करेगा उसके मन में विषय कषायों की उत्पत्ति ही नहीं होगी। परन्तु आज तक हमने सच्चे देव के स्वरूप पर ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि हम अनादि से अपने स्वरूप को भूले हुए हैं। जिन दर्शन का फल निज दर्शन है। प्रथमानुयोग शास्त्र में एक कथा आती है- एक गढ़रिया था, जो जंगल से एक शेर के बच्चे को पकड़ लाया और वह शेर का बच्चा गड़रिया की भेड़-बकरियों के साथ रहता हुआ अपनी शक्ति व स्वभाव भूल गया, वह स्वयं को भेड़ की ही जाति का समझता । एकबार प्यास से व्याकुल वह शेर का बच्चा सरोवर के किनारे पहुँचा । वहाँ शांत, स्थि व निर्मल जल में जब उसने अपना प्रतिबिम्ब देखा तो वह आश्चर्य में पड़ गया। वह अपने सब साथियों से भिन्न था, इतने में ही पहाड़ी पर से एक सिंहनी ने उसे देखा, अपनी जाति के बालक को भेड़ों में देखकर उसने गर्जना की, शेरनी की गर्जना को सुनकर सिंह बालक ने जब उधर देखा और अनुभव किया कि मैं तो उसकी जाति का हूँ, अरे, मैं यहाँ कहाँ फँसा हूँ! बस, फिर क्या था? अन्दर का सिंहत्व जागा, और वह एक क्षण में छलांग लगाकर अपनी जाति में जा मिला। (12) नित्य देवदर्शन क्यों? २३ काश! हम भी उस शेर के बच्चे की तरह अरहंत परमात्मा के स्वरूप को देखकर, पहचान कर, उनकी दिव्य ध्वनि की गर्जना सुनकर अपनी भूली हुई शक्ति को पहचान लें तो एक क्षण में परमात्मा की (अपनी ही) जाति में शामिल हो सकते हैं। जिन प्रतिमा के स्वरूप का सार्थक शब्द चित्र प्रस्तुत करते हुए कविवर भूधरदासजी कहते हैं - करनो कछु न कर कारज, तातैं पाणि प्रलम्ब करे हैं। रहयो न कछु पायन तैं पैवो,' ताही तैं पद नाहिं टर हैं ।। निरख चुके नैननि सब यातें, नेत्र नासिका अनी' धरै हैं । कहा सुनै कानन यों कानन, जोगलीन जिनराज भये हैं ।। उपर्युक्त छन्द में वीतरागविज्ञान मयी ध्यानमग्न, निश्चल, वीतरागभाव वाही, परमशान्त मुद्रा का सुन्दर साकार शब्दांकन होने से पाठक जिनदर्शन की महिमा से भी महिमावंत हुए बिना नहीं रहता । छन्द में कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के हाथ जो प्रलम्बित हैं, वे इस बात के प्रतीक हैं कि स्वतः परिणमित परद्रव्यों में इन हाथों से कुछ करना ही नहीं है। अज्ञानवश अब तक जो पर में कर्तृत्व स्थापित कर रखा था वह बात यथार्थ नहीं है। “सत्ता में आने पर मैं दुनियां का नक्शा बदल दूंगा" आदि मान्यता महाअज्ञान है - ऐसा विचारकर ही मानों जिनराज दोनों हाथ लटकाकर खड़े हैं और जगत को अपनी अचल खड़े आसन द्वारा मौन उपदेश दे रहे हैं कि यदि तुम्हें सुखी होना हो परमात्म दशा प्रगट करना हो, पुनः संसार में ८४ लाख योनियों में जन्म-मरण नहीं करना हो, संसार दुःखरूप लगा हो तो हमारी तरह तुम भी हाथ डाल दो या हाथ पर हाथ रख कर बैठ १. हाथों से ४. चलना ७. वन २. हाथ ५. नासाग्र ३. लटकाना ६. कर्ण इन्द्रिय
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy