SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रावक के षट्आवश्यक ऐसे क्या पाप किए ! इसी प्रकार नियमसार गाथा ४७ में आचार्य कुन्दकुन्ददेव लिखते हैं "तू आवश्यक को चाहता है तो तू आत्मस्वभाव में थिर भावकर।" आवश्यक शब्द का व्युत्पत्ति मूलक अर्थ हैं - 'आवासयन्ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यका' अर्थात् जो आत्मा में रत्नत्रय का वास कराते हैं उनको आवश्यक कहते हैं। वे आवश्यक छह हैं - देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्यायःसंयमस्तपः। दानंचेति गृहस्थाणां षट्-कर्माणि दिने-दिने ।। अन्य ग्रंथों में भी श्रावकों के २,४,५ व ७ कर्तव्यों का उल्लेख है; परन्तु उन सबमें दान और पूजा की ही प्रमुखता है। जैसे कि 'रयणसार' में आचार्य कुन्दकुन्ददेव लिखते हैं - 'दानं पूजा मुक्ख सावय धम्मो ण तेण बिना' अर्थात् श्रावक धर्म में दान और पूजा मुख्य हैं इनके बिना श्रावक धर्म ही सम्भव नहीं है। कषायपाहुड़ शास्त्र में लिखा है - "दाणं पूजा-शीलमुब्बासो चेदि चउव्विहो सावय धम्मो” अर्थात् दानपूजा शील और उपवास यह चार प्रकार का श्रावक धर्म है। कुरल काव्य में लिखा है - गृहस्थ के पाँच आवश्यक कर्त्तव्य हैं - आत्मोन्नति, देवपूजा, साधर्मी बन्धुओं की सहायता अतिथिदान और पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा। इसप्रकार हम देखते हैं कि श्रावक के षट्-आवश्यक कर्त्तव्यों में देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान इन छह कार्यों को आवश्यक रूप से करने का प्रावधान है। पहले श्रावक को अहिंसा मूलक अष्ट मूलगुणों का पालन आवश्यक होता है । जो व्यक्ति श्रावक के अष्टमूल गुणों व षट्आवश्यकों को पूर्ण रूपेण जीवन में अपना लेता है वह नियम से तीन भव में, पाँच भव में या सात-आठ भव में मुक्ति को प्राप्त होता है' ऐसा आगम में उल्लेख है। १. “आवासं जई इच्छई अब्ब सहावेसु कुणई थिर भावं" २. पद्मनन्दि पंचविशति पृष्ठ १२८, श्लोक ७ ३. सिज्झइ तइयम्मि भवे पंचमए कोवि सत्तमठ्ठमए। भुंजवि सुर-मणुय सुहं पावेइ कमेण सिद्ध पयं ।। - वसुनन्दि श्रावकाचार, श्लोक, ५३९ श्री पद्मनन्दि पंचविंशति शास्त्र में यह लिखा है कि - "ये जिनेन्द्रं न पश्यति पूजयन्ति स्तुवन्ति न। निष्फलं जीवितं तेषां धिक् च तेषां गृहाश्रमम् ।।" जो भक्ति से भगवान का दर्शन नहीं करते स्तुति नहीं करते उनका जीवन निष्फल है तथा उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है। अतः गृहस्थों को प्रातः उठकर के भक्ति से जिनेन्द्र देव व निग्रंथगुरु का दर्शन-वंदन करके धर्म श्रवण करना चाहिए। उपर्युक्त समस्त कथन का मूल प्रयोजन यह है कि हमें पाप भाव से बचने के लिए नित्यप्रति देवपूजा आदि षट्कर्म अवश्य करना चाहिए। राग की प्रचुरता होने के कारण, अशुभ-राग की आग से बचने के लिए, गृहस्थों के लिए जिन पूजा प्रधान कर्तव्य है। यद्यपि इनमें पंच परमेष्ठियों का एवं जिन प्रतिमाओं का आश्रय होता है; परन्तु उन सब में अपने भाव प्रधान हैं जिनके कारण पूजक अशुभ से बचता है। यहाँ यह भी ध्यान रखने की बात है कि लौकिक भोगों की वांछा से की गई जिनेन्द्र पूजा भी भोगों में आशक्ति होने के कारण पाप बंध का ही कारण होती है। अतः पूजाभक्ति निष्काम ही होनी चाहिए। १. देवपूजा :- नित्य-नैमित्तिक के भेद से पूजन अनेक प्रकार की है और वह जल चन्दनादि अष्ट द्रव्यों के अवलम्बन से की जाती है। नृत्य गानादि के साथ भक्ति भाव से की गई पूजा विशेष फलदायी होती है; क्योंकि उसमें अपना उपयोग अशुभ से हटकर गुणानुराग में विशेष लग जाता है। हाँ यदि गुणानुराग के स्थान पर संगीत के लय-स्वर आदि में व नृत्य के हाव भावों में ही रस आने लगे तो वह तो इन्द्रिय विषय रूप अशुभ भाव ही हुए, उससे धर्मलाभ की आशा दुराशा मात्र है। गृहस्थ जीवन में कुछ अति आवश्यक काम ऐसे भी होते हैं जिनमें उद्योग व आरंभ जनित हिंसा से पूरी तरह बच पाना संभव ही नहीं है; उसके लिए मन्दिर में जाकर अपनी आलोचना आदि द्वारा पापों से (15)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy