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________________ ऐसे क्या पाप किए ! भारत के सन् १९४७ के उस आजादी के इतिहास को स्मरण करें, जिसमें एकमात्र अहिंसा के अस्त्र ने वह कमाल कर दिया था। महात्मा गाँधी ने जिस अहिंसा के अस्त्र से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये, वह अहिंसा जैनधर्म की ही अहिंसा है, जिसमें कहा गया था कि हमें 'गोली का जवाब गाली' से भी नहीं देना है। महात्मा गाँधी की वह अहिंसा और जवाहरलाल नेहरू के वे शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व, अहस्तक्षेप और अनाक्रम आदि पंचशील सिद्धान्त तथा बाल गंगाधर तिलक का वह नारा, जिसमें कहा गया था कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।' ये सब किसी न किसी रूप में जैनधर्म के ही प्रदेय हैं। जैनधर्म में तो यहाँ तक कहा गया है कि स्वतंत्रता हमारा अनादिसिद्ध अधिकार है। जैनधर्म न केवल नर से नारायण बनानेवाला दर्शन है; बल्कि यह तो पशु से परमात्मा बनानेवाला दर्शन है। यह तो यह कहता है कि स्वभाव से तो हम सभी कारण परमात्मा हैं ही, यदि अपनी शक्ति को, अपने स्वभाव को जान ले, पहचान ले तो हम प्रगट पर्याय में भी परमात्मा बन सकते हैं। भगवान पार्श्वनाथ ने परमात्मा बनने की प्रक्रिया अपने पूर्व भव की हाथी की पर्याय में प्रारम्भ की थी और भगवान महावीर ने अपने पूर्व भव की सिंह की पर्याय में। कोई कह सकता है कि वर्तमान के भौतिकवादी, भोगवादी इस अर्थप्रधान हिंसक युग में क्या हुआ आपके उन अहिंसा आदि सिद्धान्तों का? आज जैनेतरों की तो बात ही क्या कहें जैन भी हिंसा और परिग्रह की पराकाष्ठा का उल्लंघन करते पाये जा रहे हैं? उनसे हम एक कहानी के माध्यम से मात्र इतना कहना चाहते हैं कि - एक बार बड़वाग्नि (समुद्र के तल में जलनेवाली अग्नि) से समुद्र अकड़ कर बोला - 'तू मेरे भीतर अनादिकाल से जल रही है, क्या बिगाड़ लिया तूने मेरा? मैं तो तेरी छाती पर वैसा ही लवालव भरा हुआ अपने ज्वार-भाटों द्वारा अठखेलियाँ कर रहा हूँ?' बड़वाग्नि ने विनम्रभाव से कहा - जिसके ऊपर समुद्रों पानी पड़ा हो; फिर भी जो अनादि से अपने अस्तित्व को कायम रखकर उस अथाह और अपार समुद्र की नाक में नकेल डालकर उसपर नियंत्रण कर रही हो; उसे अपनी मर्यादा में रखें हो, मर्यादा का उल्लंघन न करने दे रही है, उसके अस्तित्व और शक्ति के लिए यह क्या कम है। ठीक इसीप्रकार इस भौतिकवादी, भोगवादी और अर्थप्रधान युग में भी जैनधर्म अपना अस्तित्व कायम किए हुए है और करोड़ों व्यक्तियों को अपने आचार-विचार और अहिंसा आदि के सिद्धान्तों से नियंत्रित किये रहता है, उसके प्रदेय के लिए यह क्या कम है। भले ही व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत कमजोरी के कारण सम्पूर्ण रूप से अहिंसक आचरण नहीं कर पाता हो, व्यसनों का त्याग न कर पाता हो, अपरिग्रह के सिद्धान्त को पूरी तरह न अपना पाता हो, तथापि सिद्धान्त रूप से तो प्रायः सभी व्यक्ति जैनाचार और जैन सिद्धान्तों का प्रशंसक ही हैं। जैनसमाज की समृद्धि का कारण भी जैन आचरण ही है; वह कितना भी खर्च करे; शुद्ध-सात्विक शाकाहारी दाल-रोटी में कितना खर्च होगा? दूध-घी में भी रहे तो भी मांसाहार और शराब के साथ जिसे रंगरेलियों के लिए सुन्दरियाँ भी चाहिए, उनकी तुलना में तो वह खर्च कुछ भी नहीं है। जैनधर्म के अनुसार मांसाहार और शराब, भाँग, चरस-गांजा आदि तो त्याज्य हैं ही, परस्त्रीगमन और वैश्यागमन को भी दुर्व्यसन कहकर उसकी घोर निंदा की है। शराबी नशेबाज और परनारी रत जैनी का जैन समाज में कोई स्थान नहीं होता, ऐसा व्यक्ति सम्पूर्णतया उपेक्षित और बहिष्कृत ही रहता है; जबकि जैनेतर समाज में धर्म के नाम पर भी प्राणियों की हिंसा और नशीली वस्तुओं का उपयोग हो रहा है वह भी तथाकथित साधुसन्तों और महन्तों द्वारा, जो विवेक से विचार करने पर किसी भी विवेकी को स्वीकृत नहीं हो सकता। उन्हें जैनधर्म के सदाचार से कुछ अवश्य (138)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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