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________________ ऐसे क्या पाप किए ! वर्तमान संदर्भ में भगवान महावीर के सिद्धान्तों की उपयोगिता -पण्डित रतनचन्द भारिल्ल भारत विविध वर्गों, विविध समाजों, विविध सम्प्रदायों और विविध जातियों का ऐसा बृहद बगीचा है; धार्मिक, सामाजिक रीति-रिवाजों, पुरातन परम्पराओं की ऐसी चित्र-विचित्र वाटिका है, जिसमें नाना संस्कृतियों के रंग-बिरंगे फूल खिलते रहे हैं, खिल रहे हैं। भारतीय जन-जीवन में धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में पुरातन परम्परागत मूलतः दो संस्कृतियों का बाहुल्य रहा है। एक श्रवण संस्कृति और दूसरी वैष्णव (वैदिक) संस्कृति । श्रवण संस्कृति में वर्तमान में भारत में मात्र जैन संस्कृति ही अधिक फूल-फल रही है; क्योंकि इसके नैतिक मूल्य 'अहिंसा परमोधर्मः' के सिद्धान्त पर आधारित हैं तथा जैनधर्म का मूल आधार अध्यात्म है, अहिंसा है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य और सामाजिक सत्य है कि जब दो भिन्न सामाजिक संस्कृतियाँ, भिन्न-भिन्न जातियाँ अथवा भिन्न-भिन्न धर्मों को माननेवाले परिवार एक ही मौहल्ले में पास-पड़ोस में साथसाथ रहते हैं तो वे एक-दूसरे को प्रभावित किए बिना नहीं रहते । जैनों के मौहल्ले में रहनेवाले जैनेतर समाज भी जैनों के आकर्षक धार्मिक एवं समाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगते हैं, जैनों के शुद्ध-सात्विक खानपान और आचार-विचार से प्रभावित होकर दिन में खाने लगते हैं, पानी छानकर पीने लगते हैं। अभक्ष्य आहार और अनैतिक व्यवहार का भी त्याग कर देते हैं तथा ब्राह्मणों के मौहल्ले में रहनेवाले मुस्लिम भाई भी दशहरा-दिवाली मनाने लगते हैं। निःसन्देह जैनधर्म में कुछ ऐसे अनुकरणीय सिद्धान्त हैं, ऐसे आचरणीय आचरण हैं, जिसे अपना कर लोगों का जीवन धन्य हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है। यही कारण है अनेक जैनेतर प्रबुद्ध व्यक्तियों ने भी जैन धर्म के सिद्धान्त और आचार-विचार को अपनाया है, इसका हृदय से स्वागत किया है। जैन इतिहास इसका साक्षी है। जैनधर्म न केवल एक वर्ग विशेष तक ही सीमित है; बल्कि यह धर्म विश्वधर्म है, यह धर्म सार्वजनिक है, सार्वभौमिक है और सार्वकालिक है - ऐसा कोई देश नहीं, ऐसा कोई काल नहीं, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो जैनधर्म के व्यावहारिक और सैद्धान्तिक पक्ष से प्रभावित न हो, सहमत न हो; क्योंकि जैनधर्म मूलतः जैनदर्शन के चार महान सैद्धान्तिक स्तम्भों पर खड़ा है। वे चार स्तम्भ हैं - अहिंसा, अनेकान्त, स्याद्वाद और अपरिग्रह। जैनों के आचरण में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और व्यवहार में अपरिग्रह का सिद्धान्त समाया हुआ है। सूक्ष्म सिद्धान्तों की चर्चा तो संभव नहीं है; परन्तु अहिंसा एवं अपरिग्रह सिद्धान्तों का भी आज प्राणिमात्र के लिए बहुत भारी प्रदेय है। जैनों की अहिंसा न केवल मानव के प्राणघात न करने तक ही सीमित है, बल्कि किसी भी जीव को, प्राणी मात्र को न सताना, न दुःख पहुँचाना तथा अपने आत्मा में भी किसी के प्रति राग-द्वेष न रखना 'अहिंसा' व्यापक क्षेत्र में शामिल है। झूठ, चोरी, कुशील आदि से भी दूसरों के प्राण पीड़ित होते हैं। इसी कारण आचार्य अमृतचन्द्र ने झूठ, चोरी, कुशील और विषयभोग की सामग्री के अनुचित संग्रह को भी हिंसा पाप में ही सम्मिलित करके इनके त्याग को अहिंसा का व्यापक स्वरूप दर्शाया है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ में कहते हैं - आत्म परिणम हिंसनहेतुत्वात सर्वमेव हिंसेतत् । अनृतवचनादिमुदाद्धतं शिष्य बोधाय ।। (पुरुषार्थसिद्धयुपाय) (137)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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