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ऐसे क्या पाप किए ! रागादि भावरूप परिणमता है, पुद्गल कर्मों का उदय तो उसमें निमित्त मात्र ही होते हैं।"
उक्त दोनों ही छन्दों में यह बात अत्यन्त स्पष्ट रूप से कही गई है कि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वयं से ही होता है, पर पदार्थ तो उसमें मात्र निमित्त ही होते हैं।
"रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है।
अन्य नहीं और रत्नत्रय मुक्ति का ही कारण है।" -इस तथ्य को भी इसमें बड़ी खूबी से उजागर किया गया है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय ही मुक्ति का कारण है, शुभ भाव रूप व्यवहार रत्नत्रय अर्थात् रागभाव मुक्ति का कारण नहीं है। इसीप्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र निश्चय से मुक्ति के ही कारण हैं, बन्ध के कारण रंच मात्र नहीं हैं।
इस आत्मा के जिस अंश में सम्यग्दर्शन है, उस अंश (पर्याय) से बन्ध नहीं हैं तथा जिस अंश में राग है, उस अंश से बन्ध होता है। यह भाव भी निम्नांकित तीन गाथाओं में व्यक्त किया है -
"येनांशेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। येनांशेन ज्ञान तेनांशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धनं भवति ।। येनांशेन चरित्रं तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति ।
येनांशेन तु रागस्तेनांशनास्य बन्धनं भवति ।। जीव के तीन प्रकार हैं (१) बहिरात्मा (२) अन्तरात्मा (३) परमात्मा । बहिरात्मा के तो रत्नत्रय हैं ही नहीं, अतः उनके तो सर्वथा बंध ही है और परमात्मा का रत्नत्रय परिपूर्ण हो चुका है। अतः उनके बन्ध का सर्वथा अभाव है। बस एक अन्तरात्मा ही है, जिनके अंशरूप में रत्नत्रय प्रगट
होता है। वे अन्तरात्मा चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक होते हैं। उनके जिस अंश में रत्नत्रय प्रगट हुआ है, उस अंश में राग का अभाव होने से कर्मबंध नहीं होता और जिस अंश में राग रहता है, उस अंश से कर्मबन्ध होता है। श्रावकाचार का निरूपण करते हुए आ. अमृतचन्द्र कहते हैं।
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीय मखिलयत्नेन ।
तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।।२१ इन तीनों में सर्वप्रथम सम्पूर्ण प्रयत्नों के साथ सम्यग्दर्शन को अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं। सम्यग्दर्शन की पृष्ठभूमि के रूप में उससे भी पहले - मद्यमास मधु, स्थूल पाँच पापों का त्याग, रात्रि भोजन त्याग होना चाहिए। इनके त्यागे बिना तो सम्यग्दर्शन की पात्रता भी नहीं आयेगी।
इसके बाद प्रस्तुत ग्रन्थ में देशव्रती श्रावक की ११ प्रतिमाओं का वर्णन है। देवदर्शन-शास्त्र-स्वाध्याय और गुरु की उपासना करना, जल छानकर उपयोग में लेना आदि भी श्रावक के प्राथमिक कर्तव्य हैं। इनके बिना भी मोक्षमार्ग का प्रारंभ भी नहीं होता। इनके बाद देशव्रती की ग्यारह प्रतिमाओं का स्वरूप और अन्त में सल्लेखना का भी वर्णन हैं।
विलक्षण प्रतिभा के धनी आचार्य अमृतचन्द्र की यह मौलिक एवं अनेक विशेषताओं से समृद्ध अनुपम कृति है। जो विद्वद्वर्ग एवं आत्मार्थीजनों के द्वारा गहराई से अध्ययन करने योग्य हैं, नित्य स्वाध्याय करने योग्य हैं।
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