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ऐसे क्या पाप किए ! सम्यक्चारित्र भी निश्चय से आत्मस्वरूप ही हैं।"
यहाँ ध्यान देने की विशेष बात यह है कि प्रत्येक परिभाषा के अन्त में 'आत्मरूपं तत्' पद पड़ा हुआ है, जिसका तात्पर्य है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र - ये तीनों ही निश्चय से आत्मरूप ही हैं, आत्मा ही हैं।
चारित्र के प्रकरण में आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा-अहिंसा का जैसा मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। हिंसा-अहिंसा की परिभाषा दर्शाते हुए वे लिखते हैं -
"अप्रादुर्भाव खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। यत्खलु कषाय योगात् प्राणानां द्रव्यभावरूपाणम् ।
व्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ।। निश्चय से आत्मा में रागादि भावों का प्रगट न होना ही अहिंसा है, और उन रागादि भावों का उत्पन्न होना ही निश्चय से हिंसा है।
कषाय रूप परिणमित हुए मन, वचन, काय के योग से स्व-पर के द्रव्य व भावरूप दोनों प्रकार के प्राणों का व्यपरोपण करना-घात करना ही हिंसा है।"
प्रस्तुत पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में हिंसा-अहिंसा की व्याख्या अत्यन्त सूक्ष्म रूप से की गई है। सर्वत्र भावों की मुख्यता से ही हिंसा के विविध रूपों का वर्णन है। ___ पाँचों पापों को एवं कषायादि को हिंसा में ही सम्मिलित करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं -
"आत्मपरिणामहिंसन हेतुत्वात् सर्वमेवहिंसैतत् ।
अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यवोधाय ।।" आत्मा के शुद्धोपयोग रूप परिणामों के घातक होने से ये सब पाँचों पाप एवं कषायादि सब हिंसा ही हैं, असत्य वचनादि के भेद तो केवल
शिष्य को समझाने के लिए कहे हैं।"
आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मा में मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति और उनके निमित्त से स्व-पर प्राण व्ययरोपण को हिंसा कहा है। झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह के माध्यम से भी आत्मा में मोह-राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और स्व-पर प्राणों को पीड़ा भी पहुँचती हैं - इस कारण झूठ, चोरी आदि पाप भी प्रकारान्तर से हिंसा ही है। __ "सूक्ष्मापिन खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसा।
हिंसायतन निवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।। यद्यपि परवस्तु के कारण सूक्ष्म हिंसा भी नहीं होती, तथापि परिणामों की निर्मलता के लिए हिंसा के आयतन बाह्य परिग्रहादि से एवं अन्तरंग कषायादि का त्यागकर उनसे निवृत्ति लेना उचित है।"
आचार्य अमृतचन्द्र ने हिंसा-अहिंसा के अनेक भंगों की मीमांसा की है, जो मूलतः पठनीय है।
जैन दर्शन का मूल 'वस्तुस्वातंत्रय' जैसा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में प्रतिपादित हुआ है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। कार्य स्वयं में ही होता है; पर पदार्थ तो उसमें निमित्त मात्र ही होते हैं।
निमित्त-उपादान की अपनी-अपनी मर्यादायें हैं। जीव के परिणाम रूप भावकर्म एवं पुद्गल के परिणामरूप द्रव्यकर्म में परस्पर क्या सम्बन्ध हैं - इस बात को वे इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - 'जीवकृतं परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणामन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्म भावेन ।। परिणाममानस्य चितचिदात्मकैः स्वयमपि स्वकै वैः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पौगलिकं कर्म तस्यापि ।। जीव के रागादि परिणामों का निमित्त मात्र पाकर कार्माण वर्गणा रूप पुद्गल स्वयं ही कर्मरूप में परिणमित होते हैं। इसीप्रकार जीव भी स्वयं ही
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