________________
चरित्र निर्माण
ऐसे क्या पाप किए ! सीखना चाहिए।
दान और उदारता के क्षेत्र में भी जैनसमाज सदैव अग्रणी रहा है। यह उदारता भी जैनों ने अपने धर्म और दर्शन से ही सीखी है। आचार्य उमास्वामी का स्पष्ट आदेश है - "अनुग्रहार्थं स्वस्याति सर्गो दानं" अर्थात् अपने और दूसरों की भलाई के लिए अपने न्यायोपात्त उपार्जित धन का देना ही सच्चा दान है। आज हम देखते हैं कि हजारों बड़े-बड़े शिक्षा संस्थान, धर्मायतन, औषधालय, छात्रवृत्तियाँ आदि द्वारा अनगिनत लोकोपकारी कार्य जैनसमाज द्वारा सम्पन्न हो रहे हैं। यही सब जैनधर्म का भारतीय समाज को प्रदेय है। मैं अपेक्षा करता, आशा रखता हूँ कि जैन और जैनेत्तर समाज जैनधर्म को जीवन में अपनाकर इसी तरह अध्यात्म और लोकोपकार के क्षेत्र में अग्रणी रहकर अपना मानव जीवन सार्थक एवं सफल करें।
___ - पण्डित रतनचन्द भारिल्ल मानव मन की दो ही प्रमुख अभिलाषाएँ हैं - एक सुख और दूसरा यश । जगत के जीवों के जितने भी प्रयत्न हैं, छोटे-छोटे दैनिक जीवन के कार्य कलापों से लेकर बड़ी बड़ी गूढ़ और गम्भीरतम् समस्याओं के पीछे जब हम झाँक कर देखते हैं तो उक्त दो ही इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास हमें अंततः परिलक्षित होते हैं। ___यदि हमें सच्चा सुख और असली यश कहीं प्राप्त हो सकता है तो वह है हमारा चरित्र! चरित्रवान व्यक्ति को उक्त दोनों ही बातें अनायास सहज साध्य हो जाती है। चरित्रवान व्यक्ति ही जीवन में सुख व यश के पात्र होते हैं और यश के मूल में भी सुख की ही अभिलाषा अव्यक्त रूप से विद्यमान होती है; क्योंकि अपयश प्राप्त मानव अशांत और व्याकुल नजर आता है। और यश प्राप्त करके अपने को सुखी अनुभव करता है। इसलिये एक कवि ने कहा है - ___ “जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुख ते भयवंत,
ताते दुख हारी सुखकार, कहें सीख गुरु करुणाधार"
"वह सीख चरित्र निर्माण की ही सीख है जो गुरु जी करुणा करके शिष्य को दिया करते हैं।
वह चरित्र क्या है। और उसका निर्माण कैसे होता है? यह एक विचारणीय प्रश्न है। चरित्र उन सद्वृत्तियों का समूह है जो हमारे व्यावहारिक जीवन से सम्बन्ध तो रखते ही हैं निराकुल सुख भी सदाचारी और चारित्रवान व्यक्ति को ही प्राप्त होता है। ये सवृत्तियाँ मुख्यतः उन्हें सम्यक् श्रद्धा, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् आचरण से ही विकसित होती हैं। इन्हीं में
(139)