________________
कहानी
२३
जान रहा हूँ, देख रहा हूँ
आषाढ मास की अष्टाह्निका का समय था, सिद्धचक्रपूजा विधान का वृहद् आयोजन चल रहा था। सारा समाज धार्मिक वातावरण के रंग में रंगा था। प्रातः पूजन-पाठ के बाद अध्यात्मरसिक, तार्किक विद्वान स्थानीय पण्डितजी के प्रवचनसार परमागम पर मार्मिक प्रवचन चल रहे थे।
प्रवचनों में पण्डितजी नाना तर्कों, युक्तियों और उदाहरणों से आत्मा के ज्ञाता दृष्टा स्वभाव को समझा रहे थे और स्वतंत्र स्व-संचालित वस्तुव्यवस्था के आधार पर पर के कर्तृत्व का निषेध कर प्रत्येक प्रतिकूलअनुकूल परिस्थिति में हर्ष-विषाद न करके ज्ञाता-दृष्टा रहने पर जोर दे रहे थे।
पण्डितजी ने अपने प्रभावी प्रवचन में यह भी बताया कि - "धर्म परिभाषा नहीं प्रयोग है" अतः जो सिद्धान्त हमने यहाँ समझे सुने हैं, उनका हमें अपने पारिवारिक, व्यापारिक और सामाजिक जीवन में प्रयोग भी करना चाहिए; क्योंकि घर-परिवार या व्यापार और समाज के क्षेत्र में ही ऐसे अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंग बनते हैं, जहाँ हमारे तत्त्वज्ञान की परीक्षा होती है। यदि हम अपने कार्यक्षेत्र में इन सिद्धान्तों के प्रयोग में सफल हुए तो ही हमारा तत्त्वज्ञान सुनना सार्थक है, अन्यथा पल्ला झाड़ प्रवचन सुनने से कोई लाभ नहीं होगा ।" पण्डितजी ने पुनः गीतमय भाषा में कहा
" बस, जानन देखन हारा, यह आत्मा हमारा।
जो जले नहीं अग्नि में, गले नहीं पानी में ।
सूखे न पवन के द्वारा यह आत्मा हमारा ।। बस ।। सभी श्रोता सिर हिला-हिलाकर और तालियाँ बजा-बजाकर पण्डितजी के कथन का हार्दिक समर्थन करते हुए अध्यात्म के रस में
(122)
जान रहा हूँ, देख रहा हूँ
२४३
मग्न होकर झूम रहे थे। साथ ही स्वर में स्वर मिलाकर सब एकसाथ बोल रहे थे - " बस, जानन देखन हारा, यह आत्मा हमारा।"
अतिथिरूप में बाहर से पधारे एक वयोवृद्ध ब्रह्मचारी यह सब आध्यात्मिक वातावरण का नजारा देख रहे थे, पर उनके मुखमण्डल पर एक विचित्र प्रकार भाव झलक रहा था। ऐसा लगता था कि संभवत: उन्हें यह सब पसन्द नहीं आ रहा है। वे सोच रहे थे - "यदि हम मात्र जानन देखन हारे हैं तो यह हमारे काम-काज कौन कर जाता है ? 'कोई पर का कुछ कर ही नहीं सकता' ऐसे उपदेश से तो पुरुषार्थ का ही लोप हो जायेगा और सब स्वच्छन्दी हो जायेंगे। वे यही सब सोचते रहे, परन्तु उससमय उन्होंने कोई प्रतिक्रिया प्रगट नहीं की, चुपचाप उठकर चले गये और अपनी बात कहने के लिए अपने अनुयायी नजदीकी मित्रों से मिलकर मध्यान्ह में अपने प्रवचन का प्रोग्राम बनवाया ।
ब्रह्मचारी के प्रवचन की सूचना से सब श्रोता प्रसन्न थे, सभी श्रोता समय पर आ भी गये। सबको यह आशा और अपेक्षा थी कि एक वयोवृद्ध आत्मसाधक ब्रह्मचारीजी के अनुभवों का हमें विशेष लाभ मिलेगा; परन्तु ब्रह्मचारीजी ने प्रात:कालीन 'जानन देखन हारा' के आध्यात्मिक वातावरण पर कटाक्ष करने के उद्देश्य से एक कहानी से अपना प्रवचन प्रारंभ किया -
ब्रह्मचारीजी ने कहा- “एक अध्यात्मप्रेमी सेठ और उसकी पत्नी प्रतिदिन की भाँति रात्रि दस बजे अपने शयन कक्ष में चले गये। जब वे गहरी नींद में सो गये तब मध्य रात्रि के बाद उनके शयन कक्ष में एक चोर ने प्रवेश किया। यद्यपि चोर सावधानी से कदम रख रहा था, पर संयोग से उसका हाथ सेन्टर टेबल पर रखी घंटी पर पड़ गया। घंटी की आवाज से सेठानी की नींद खुल गई। आँखें खोल कर देखा तो नाइट बल्ब के मन्दमन्द प्रकाश में एक व्यक्ति तिजोड़ी में चाबी मिलाते हुए दिखा।
सेठानी समझ गई, यह कोई चोर है। उसने पति को धीरे से जगाकर कहा – “देखो ! घर में चोर घुस आया और उसने तुम्हारी तकिया के नीचे से तिजोड़ी की चाबी भी निकाल ली है।