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ऐसे क्या पाप किए! नींद तो सेठ की भी खुल गई थी, सेठ ने भी चोर को देख लिया था, पर वह अपने अध्यात्म का आलम्बन लेकर चुपचाप जानता-देखता रहा और उस सेठ ने पत्नी से धीरे से कहा - "मैं सब जान रहा हूँ, देख रहा हूँ।"
चोर ने तिजोड़ी खोल ली, सारी धन-सम्पत्ति पोटली में बांध ली, अब जब वह कांख में दबाकर चल ही दिया तो पत्नी ने पुन: कहा - "कब तक जानते-देखते रहोगे, कुछ करोगे नहीं ? देखो, वह माल लेकर चला..."
पति ने कहा - तू शान्त रह! मैं अपना काम कर रहा हूँ। इतने में तो चोर सब माल लेकर नौ-दो ग्यारह हो गया।
तब पत्नी चिल्लाकर बोली - "क्या खाक कर रहे हो ? जाननादेखना भी कोई काम है ? तुमने अपनी आँखों से देखते-देखते सब लुटा दिया। अरे ! वह अकेला था और अपन दो थे, क्या उसे पकड़ नहीं सकते थे? पर तुम ऐसा क्यों करोगे? ज्ञाता-दृष्टा रहने का पाठ जो पढ़ लिया है।" यह कहते हुए वह मन ही मन सोचती है कि - इस पण्डित ने सभी श्रोताओं को कायर और निकम्मा बना दिया है।'
ब्रह्मचारीजी ने कहानी पूरी करते हुए कहा - इसतरह पति और पण्डितजी के प्रति रोष प्रगट करती हुई बेचारी पत्नी रोती रह गई।"
इस कहानी के माध्यम से ब्रह्मचरीजी ने व्यंग्य करते हुए यह सिद्ध करना चाहा कि ये अध्यात्म की बातें करनेवाले इसीतरह कायरता की बातें करते रहेंगे, मुंह छुपा कर डरपोक बने सोते रहेंगे और लुटते रहेंगे।
ब्रह्मचारीजी के द्वारा अध्यात्म की हँसी उड़ानेवाले इस कटाक्ष भरे प्रवचन को सुनकर पास में बैठे अध्यात्मरसिक स्थानीय पण्डितजी से नहीं रहा गया। अत: उन्होंने अंत में बोलने की अनुमति लेकर कहा - "ब्रह्मचारीजी ! आपने उदाहरण तो बहुत अच्छा दिया, पर इसमें आप निम्नांकित इतना अंश और जोड़ लें तो यही उदाहरण बेजोड़ हो जायेगा।
"धन की लोभी पत्नी को चोर धन ले जाते तो दिखा, पर उसे उस चोर की कमर पर लटकती कटार नहीं दिखी, जो कि उसके पति को दिख
जान रहा हूँ, देख रहा हूँ रही थी। सेठ यह भी जानता था कि - चोर को रोकना-टोकना तो बहत दूर, यदि चोर को यह भी पता लग जाता कि सेठ-सेठानी ने मुझे देख लिया है तो वह माल के साथ हम दोनों की जान भी ले जाता, पुलिस कार्यवाही के लिए वह हमें जिन्दा ही नहीं छोड़ता।
सेठ ने शास्त्र में यह भी पढा था कि “पैसे का आना-जाना तो पुण्य-पाप का खेल है। पुण्योदय से छप्पर फाड़कर चला आता है और पापोदय से तिजोड़ी तोड़ कर चला जाता है।" अतः उसने सोचा - “पैसों के पीछे प्राणों को जोखिम में नहीं डालना चाहिए।'
सेठ ने सेठानी को समझाया कि - "पैसा तो उस कुंए के पानी की भांति है, जिस कुँए की झिर चालू है। कृषक उस कुँए से दिन भर चरस चलाकर सम्पूर्ण पानी को खेतों में सींच कर कुँआ खाली कर देता है। वह खाली कुंआ प्रतिदिन प्रात: फिर उतना ही भर जाता है, कुँए की तरह तिजोड़ी को भी कोई कितनी भी खाली कर दे, पुण्योदय की झिर से वह पुनः भर जायेगी। चिन्ता क्यों करती है ? अपने भाग्य पर भरोसा रख और धर्माचरण में मन लगा, धर्माचरण धन आने का भी स्रोत है।"
पण्डितजी के इस पाँच मिनिट के उद्बोधन ने ब्रह्मचारीजी को अपने आध्यात्मिक अज्ञान का ज्ञान करा दिया। उन्होंने यह स्वीकार किया कि वस्तुत: एक-दूसरे द्रव्य का कर्ता-भोक्ता नहीं है; क्योंकि दो द्रव्यों के बीच अत्यन्ताभाव की वज्र की दीवाल है। फिर क्या था - ब्रह्मचारीजी ने संकल्प किया कि इन पण्डितजी के पास रहकर मुझे कुछ दिन पढना चाहिए। अपने संकल्प के अनुसार उन्होंने चार माह तक पण्डितजी के आध्यात्मिक प्रवचन सुने और अंत में पण्डितजी का आभार मानते हुए बोले - "भैया हमें तो इन बातों की खबर ही नहीं थी। अब हमारी समझ में आया कि आत्मा का धर्म तो सचमुच मात्र “जानना-देखना" ही है तथा एक जीव दूसरे का भला-बुरा करने लगे तो उसके पुण्य-पाप का क्या होगा।' कहा भी है -
स्वयं किए जो कर्म शुभाशुभ फल निश्चय ही वे देते। करे आप फल देय अन्य तो स्वयं किए निष्फल होते ।। .
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