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________________ २४० ऐसे क्या पाप किए ! छटवाँ और न्यूनतम दसवाँ भाग सत्कार्यों में, ज्ञानदान में, परोपकार में लगना चाहिए तथा 'तुरंत दान महाकल्याण' जितना जो बोल दिया हो, देने की घोषणा कर दी हो, तत्काल दे देना चाहिए। क्या पता अपने परिणाम या परिस्थितियाँ कब विपरीत हो जायें और दिया हुआ दान न दे पायें।" तीसरी बात - "शक्ति से अधिक नहीं देना, अन्यथा आकुलता हो सकती है तथा लोभ के वश शक्ति भी नहीं छुपाना।" चौथी अन्तिम बात गुरुदेव ने यही कही थी कि “दान देकर उसके फल की वांछा-कांछा नहीं करना, बदले की अपेक्षा नहीं रखना।" ___ अपनी आलोचना और प्रायश्चित्त करते हुए सेठ कहता है कि "मैंने विवेक शून्य होकर उपर्युक्त चारों बातों का ध्यान नहीं रखा । इसकारण यह संकट मेरे ऊपर आया है। अत: मैं संकल्प करता हूँ कि पुण्योदय से प्राप्त धन विषय-कषाय की पूर्ति और दुर्व्यसनों में बर्बाद नहीं करूँगा। __पर अभी क्या करूँ ? पुलिस का सहारा लेता हूँ तो पहले तो पुलिस की ही पूजा करनी पड़ेगी? क्या पता पुलिस कितने रुपया माँगे? माँगे या न माँगे; पर उसे सक्रिय करने के लिए कुछ प्रलोभन देना तो पड़ेगा ही।" ___ सेठ यह सोच ही रहा था कि फोन की पुन: घंटी बजी, फोन उठाया तो कानों में आवाज आई - “सेठ क्या सोच रहे हो ? ध्यान रखना यदि पुलिस का सहारा लिया तो बेटे की लाश मिलेगी। हमारा कुछ भी हो, पर तुम्हें बेटे से हाथ धोना पड़ेंगे।" यह समाचार सुनकर सेठ किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसे चक्कर आ गया। सीने में दर्द हुआ, फिर सीना दबाकर बैठ गया। सोचने लगा - "गुरुजी ने ठीक ही कहा था कि यह सब पुण्य-पाप का खेल है। अब पांसा पलट गया, फिर पाप का उदय आ गया। मैं पैसे को पाकर विवेकशून्य हो गया था। अब जो कुछ हुआ सो हुआ। सबसे पहले एक करोड़ का इन्तजाम कर बेटे को छुड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।" मान से मुक्ति की ओर २४१ सेठ ने ५० लाख में कोठी बेची। बहू के जेवरात और गाड़ी आदि सबकुछ बेचकर पैसे की व्यवस्था की। थैली में भरकर फोन पर बताये ठिकाने की ओर जा रहा था कि कुछ गुंडे पीछे लग गये और रास्ते में वे रुपया सेठ से छीन कर भाग गये। अब सेठ की दशा दयनीय हो गई। वह आत्मघात की सोच ही रहा था कि पुन: मोबाइल की घंटी बजी - “सेठ मरने से दुख से मुक्ति नहीं मिलेगी। कोई बात नहीं चिन्ता मत करो... । तुम्हारे रुपया हमें मिल गये। तुमसे पैसे छीननेवाले हमारे ही आदमी थे। तुम यदि हमारे ठिकाने तक आते तो तुम्हें और हमें दोनों को पुलिस पकड़ लेती, क्योंकि उस ठिकाने को पुलिस ने पहले से ही घेर रखा था। तुम चिन्ता न करो तुम्हारा बेटा कल तुम्हारे घर पहुँच जायेगा।" __ आतंकवादी डाकुओं से मुक्त हुए जिनचन्द्र के बेटा ने बाप के कड़वेमीठे अनुभवों को सीखकर उत्तम श्रेणी का व्यक्ति बन कर वह खोटी राह ही नहीं अपनाई, जिसमें कांटे ही कांटे थे। सेठ से अब न रोते बनता था और न हँसते बन रहा था । जहाँ बेटा के सकुशल लौटने का बहुत हर्ष था, वहीं सर्वस्व समाप्त होकर पुनः सड़क पर आ जाने, करोड़पति से रोड़पति बन जाने का दुःख भी कम नहीं था। यह सब पुण्य-पाप का विचित्र खेल १२ वर्ष की समयावधि में ही देखकर सेठ संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया। उसे ऐसा वैराग्य आया कि उस घर-परिवार से मुँह मोड़कर पुन: करोड़पति बनने का सपना-विकल्प छोड़कर पुण्य-पाप से पार आत्मा के उस अनन्त वैभव को प्राप्त करने के लिए चल पड़ा, जिसका कभी अन्त नहीं आता, जो कभी नष्ट नहीं होता। (121)
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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