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ऐसे क्या पाप किए ! हाँ, अपने नाम का एक चैरिटेबल ट्रस्ट बनाने का विचार जरूर है। उसे टेक्स फ्री कराने की कोशिश करेंगे और उसके द्वारा विधवा सहायता
और कन्याशाला चलाने का काम करेंगे।" __ आपस में कानाफूसी करते हुए वहाँ बैठे लोगों ने टिप्पणी की - “सेठ है तो बड़ा दूरदर्शी ! सेठानी बीमार रहने लगीं हैं न ! उससे अब चलते-फिरते, उठते-बैठते भी तो नहीं बनता, इसलिए सेठ विधवा सहायता
और कन्याशाला के बहाने औरतों का मेला लगायेगा और अधिक कुछ नहीं तो उन विधवाओं और शिक्षिकाओं को घूर-घूरकर अपनी आँखे ही सेंक लिया करेगा।" ___कोई अपने मनोविकारों को कितना भी छिपाये, पर चेहरे की आकृति हृदय की बात कह ही देती है। खोटी नियत जाहिर हुए बिना नहीं रहती
और खोटी नियत का खोटा नतीजा भी सामने आ ही जाता है। इसीकारण तो पास बैठे लोगों ने सेठ की खोटी नियत को भांप लिया था।
मान से मुक्ति की ओर
सुनियोजित योजना के अनुसार सेठ के बेटे जिनेश्वर का अपहरण हो गया और फोन पर सेठ को यह धमकी दे दी गई कि “यदि २४ घंटों में एक करोड़ की फिरौती निर्धारित स्थान पर लेकर नहीं आया तो बेटा को जान से मार दिया जायेगा। यदि पुलिस को सूचित किया तो तुम्हारी बीबी भी विधवा हो जायेगी।"
सेठ जिनचन्द्र ने ज्यों ही समाचार सुना तत्काल उसके सीने में दर्द हो गया, हल्का-सा हार्ट-अटैक हो गया। पहले तो वह सीना दबाकर वहीं बैठ गया; फिर तत्काल हिम्मत करके स्वयं को संभालते हुए वह अपने किए पापों का पश्चाताप करने लगा।
अब उसकी समझ में सबकुछ आ गया था। वह सोचता है - "न मैं अभिमान के पोषण के लिए दूसरों के सामने अपने बड़प्पन का प्रदर्शन करता और न यह नौबत आती। मैंने स्वयं ही अपने पैरों पर कल्हाडी पटकी है, अन्यथा किसे पता था कि मेरे पास क्या है ? कितना है ? मेरे ही बेटे का अपहरण क्यों हुआ ? औरों का क्यों नहीं ?
वस्तुत: मैंने ही अपने वैभव के प्रदर्शन की लम्बी-लम्बी बातें करके इस मुसीबत को मोल ले लिया है, लुटेरों को आमंत्रित किया है।
न मैं उस दिन एक करोड़ की चर्चा करता और न ये घटना घटती।"
स्वयं बड़ा और दूसरों को छोटा, स्वयं को ऊँचा और दूसरों को नीचा दिखाने के चक्कर में यह झंझट सेठ के गले पड़ गई थी।"
नीतिकारों ने ठीक ही कहा है कि - 'जिस भाँति ज्ञानी जन निज निधि को एकान्त में ही भोगते हैं, उसीतरह व्यवहारी जनों को भी अपने मान पोषण के लिए अपने बाह्य वैभव का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।'
एक ही झटका लगने से सठ को थोड़ी-थोड़ी अक्कल आ गई थी, अतः सोचता है कि गुरुजी ने ठीक ही कहा था कि - "धन की संचय अन्याय से नहीं करना, क्योंकि अन्याय का पैसा कालान्तर में मूल पूँजी सहित नष्ट हो जाता है।"
दूसरी बात गुरुदेव ने यह भीकही थी कि - "न्यायोपात्त धन अधिकतम
एक दिन वह सेठ घर के बाहर उसी चबूतरे पर बैठा अपने पूर्व परिचित चाटुकारों और खुशामद करनेवालों के बीच बैठा उन पर अपना रौब जमाने के लिए लम्बी-लम्बी छोड़ रहा था। लाखों-करोड़ों के बड़ेबड़े व्यापार करने एवं उसमें मुनाफा मिलने की बातें कर रहा था । संयोग से दो-तीन अपरिचित व्यक्ति भी वहाँ आ बैठे, जिनकी ओर उसका ध्यान नहीं गया।
उसकी ऊँची-ऊँची बातें सुनकर उन अपरिचितों के मन में लोभ आ गया। उन्होंने सोचा - “यह तो मोटा मुर्गा है, यदि यह अपनी पकड़ में आ गया तो अपना जन्मभर का दलद्दर दूर हो जायेगा। फिर रोज-रोज अपनी जान को जोखिम में डालने की जरूरत ही नहीं रहेगी।"
फिर देर किस बात की थी। उन्होंने वहीं योजना बना डाली। कल ही प्रात: ५ बजे नेशनल पार्क में घूमने आनेवाले इस सेठ के बेटे का अपहरण कर लिया जाय और एक करोड़ फिरौती में इससे वसूल किये जायें।
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