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ऐसे क्या पाप किए ! आज से लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व उस प्रवाहमयी शैली को देखकर आश्चर्य होता है। उनका हिन्दी साहित्य में एक विशेष स्थान है, क्योंकि एक तो वे सोलहवीं सदी के अपने ढंग के एक ही लेखक थे। उन्होंने अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ इन तीनों मुगल सम्राटों के शासनकाल में उत्तर भारत की राजनीतिक और सामाजिक दशा को निकट से देखा था और अपने साहित्य में उसका उल्लेख भी किया है। दूसरे, वे हिन्दी आत्मकथा साहित्य के आद्यप्रवर्तक हैं। 'अर्द्धकथानक' काव्य में उन्होंने जिस नये काव्यरूप को अपनाया है, उसे हिन्दी के और किसी कवि ने नहीं छुआ।
हिन्दी के आत्मकथा साहित्य में 'अर्द्धकथानक' जैसा दूसरा ग्रन्थ नहीं है। उसमें मनमौजी स्वभाववाले असफल व्यापारी का हुबहू चित्र देखने को मिलता है और पाठक को यह देखकर प्रसन्नता होती है कि वास्तव में बनारसीदास जैसे थे, उसका यथार्थ प्रतिबंध अर्द्धकथानक में आया है । लेखक व उसके शब्दों के बीच में कोई पर्दा नहीं है। इसमें उन्होंने जिस भाषा-शैली का उपयोग किया है, वह सहज ही पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। उसकी भाषा जौनपुर और आगरा के बाजारों में बोली जानेवाली भाषा है। उसमें मूल छटा तो हिन्दी है, पर अरबी व फारसी के भी बहुत से शब्द घुल-मिल गये हैं। उसका जीताजागता सटीक नमूना बनारसीदास ने रखा है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता ।
साहित्य के नाते बनारसीदास ने 'अर्द्धकथानक' में जो सच्चाई बरती है, उससे पाठक का मन आज भी फड़क उठता है । वे बराबर हमारी सहानुभूति अपनी तरफ खींच लेते हैं। क्या ही अच्छा होता, 'अर्द्धकथानक' जैसे और भी दो-चार ग्रन्थ उस युग की हिन्दी भाषा में लिखे जाते ।"
अपने जीवन के पतझड़ में लिखी गई इस रचना से यह आशा उन्होंने १. वीरवाणी, जयपुर, बनारसीदास विशेषांक १९९३, पृष्ठ ३
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जैन अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कवि : बनारसीदास
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यह स्वप्न में भी नहीं की होगी कि यह कृति कई सौ वर्ष तक हिन्दी जगत में उनके यशः शरीर को जीवित रखने में समर्थ होगी ।
कविवर की इस कृति को आद्योपांत पढ़ने पर हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि कतिपय तथाकथित समीक्षकों की उपेक्षा के बावजूद भी इसमें वह संजीवनी शक्ति है जो इसे कई सौ वर्षों तक जीवित रखने में समर्थ होगी तथा हिन्दी साहित्य में भी इसका विशेष स्थान होगा।
इसमें सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभाविकता का ऐसा जबर्दस्त पुट विद्यमान है तथा भाषा इतनी सरल व संक्षिप्त है कि साहित्य की चिरस्थाई सम्पत्ति में इसकी गणना अवश्यमेव होगी, क्योंकि हिन्दी का तो यह सर्वप्रथम आत्मचरित है ही, अन्य भाषाओं में भी इसप्रकार का और इतना पुराना आत्मचरित नहीं है।
प्रसिद्ध समालोचक एवं संसद सदस्य श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने 'अर्द्धकथानक' पर अपनी टिप्पणी देते हुए लिखा है
बनारसीदास का आत्मचरित पढ़ते हुए प्रतीत होता है कि मानो हम कोई सिनेमा देख रहे हों।
सबसे बड़ी खूबी इस आत्मचरित की यह है कि यह तीन सौ वर्ष पुराने साधारण भारतीय जीवन का एक दृश्य ज्यों का त्यों उपस्थित कर देता है। क्या ही अच्छा हो यदि हमारे प्रतिभाशाली साहित्यिक इस दृष्टान्त का अनुसरण कर आत्मचरित लिख डालें।
फक्कड़ शिरोमणि कवि बनारसीदास ने तीन सौ वर्ष पहले आत्मचरित लिखकर हिन्दी के वर्तमान और भावी फक्कड़ों को न्योता दे दिया है। यद्यपि उन्होंने विनम्रता पूर्वक अपने को कीटपतंगों की श्रेणी में रखा है। तथापि इसमें संदेह नहीं कि वे आत्मचरित लेखकों में शिरोमणि हैं।
इसप्रकार हम देखते हैं कि बनारसीदास के साहित्य में वे सभी काव्यगत उपादान एवं विशेषतायें हैं, जिनकी एक उत्कृष्ट कवि से अपेक्षा होती है। इसके अतिरिक्त मौलिक चिन्तन, नई सूझ-बूझ, गहरी पकड़ एवं लोकजीवन का गहन अध्ययन और अध्यात्म की पैनी दृष्टि भी उनके तब चलावै कौन २. वीरवाणी, बनारसीदास विशेषांक १९६३
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