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मान से मुक्ति की ओर
२३३ छोटे से गाँव में अपने घर में कुछ सुविधायें जुटा ली थीं। जैसे कि पानी के लिए आँगन में नलकूप लगा लिया, नहाने-धोने, नित्यकर्मों से निबटने के लिए स्नानघर आदि बनवा लिया। प्रकाश के लिए जनरेटर, गेसबत्ती की व्यवस्था कर ली, कच्चे मकान की मरम्मत करा ली, सवारी के लिए घोड़ा-गाड़ी रख ली।
इसप्रकार उसने गाँव के गरीब व्यक्तियों से कुछ अलग दिखने के साधन क्या जुटा लिए और बन गये 'अंधों में काने राजा'। फिर क्या था अब तो उसकी चाल ही बदल गई। सीधा चलता ही नहीं, उसका बातचीत का तरीका ही बदल गया । वह किसी से सीधे मुँह बात ही नहीं करता । जैसे - शतरंज के खेल में जब प्यादा प्यादे से वजीर बन जाता है तो उसकी चाल टेढ़ी हो जाती है, उसीतरह वह जिनुआ से जिनचन्द्र बनते ही मानो उसके पंख लग गये और आकाश में उड़ने लगा।
कहानी
मान से मुक्ति की ओर “माया तेरे तीन नाम, परसा-परसू-परस राम।" कहावत को चरितार्थ करते हुए जिनुआ बनिया को जिनुआ से जिन्नूजी और जिन्नूजी से जिनचन्द्र बने अभी चन्द दिन ही हुए थे, परन्तु वह बहुत जल्दी अपनी जिनुआ वाली औकात भूल गया था। __जब सारा गाँव उसे जिनुआ कहकर पुकारता था, गाँव में कोई इज्जत नहीं थी। घर में दो चना और दो धना भी नहीं थे। भूखों मरता था, भरपेट खाने को भी नहीं मिलता था। नंगे पैर गाँव के गलियारों में घूम-घूमकर चने-भंगड़े बेचकर जैसे-तैसे रोजी-रोटी चलाता था। ___पर “सबै दिन जात न एक समान' सिद्धान्त के अनुसार उसके भाग्य ने भी पलटी मारी, उसके दिन फिर गये और वह जिनुआ से जिन्नूजी बन गया। ___ “सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयन्ति" ज्यों-ज्यों उसके पास सम्पत्ति बढ़ती गई, उसका कद ऊँचा होता गया, कद के साथ पद भी बढ़ता गया। ___ जो कलतक दुनिया की दृष्टि में भोला था, कुछ नहीं समझता था; समाज की नजरों में मूरों का सरदार दिखता था। अब वही समाजभूषण, जैनरत्न “सेठ जिनचन्द्र" कहलाने लगे थे।
यद्यपि अभी भी उसके पास अभिमान करने लायक कुछ भी नहीं था; परन्तु जिस भाँति वृक्षविहीन प्रदेश में एरण्ड का पौधा भी वृक्ष कहलाता है, उसी भाँति सेठ जिनचन्द्र की स्थिति थी।
एक रिश्तेदार सेठ की पूँजी के सहयोग से साहूकारी में गाँव में किसानों को तगड़े ब्याज पर रुपया देकर तथा खेतों में बोने को दिए गए बीज की डेढ़ गुनी वसूली से कुछ ही दिनों में वह उस जनपद का सेठ बन गया।
आर्थिक स्थिति अच्छी हो जाने से उसने उस सुख-सुविधाविहीन
वह बिचारा यह नहीं जानता था कि “यह सब तो पुण्य-पाप का खेल है। रोड पर पैदल रास्ता नापनेवालों को करोड़पति बनकर कार में दौड़ने में यदि देर नहीं लगती तो करोड़पति से पुनः रोड पर आ जाने में भी देर नहीं लगती। शास्त्र इस बात के साक्षी हैं, शास्त्रों में लिखा है कि जो जीव एक क्षण पहले तक स्वर्गों के सुख भोगता है, सहस्त्रों देवांगनाओं सहित नन्दनवन के सैर-सपाटे करता हुआ आनन्दित होता है, वही अगले क्षण आयु पूरी होने पर - 'तंह” चय थावर तन धरै' इस आगम प्रमाण के अनुसार एक क्षण में एक इन्द्रिय जीव की योनि में चला जाता है। जो अभी चक्रवर्ती के भोगों के सुख भोग रहा है, वही मरकर सातवें नरक में भी जा सकता है।
अत: यदि कोई थोड़ा भी समझदार हो, विवेकी हो तो वह क्षणिक अनुकूल संयोग में अपनी औकात (हैसियत) को नहीं भूलता। अपनी भूत और वर्तमान पर्याय की कमजोरी और त्रिकालीस्वभाव की सामर्थ्य - दोनों को भलीभाँति जानता है। अतः उसे सेठ जिनचन्द्र की भाँति संयोगों में अभिमान नहीं होता; परन्तु ऐसी समझ सेठ जिनचन्द्र में नहीं थी।
यद्यपि सेठ जिनचन्द्र पिता के जमाने से चले आ रहे परम्परागत
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