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________________ २२८ ऐसे क्या पाप किए ! विवेचन किया है। भारतीय परम्परा में साहित्य व धर्म का परस्पर अन्तःसंबंध रहा है। वैदिक कालीन साहित्य तो मुख्यत: धार्मिक साहित्य ही है। इसके बाद का प्राकृत, पाली व अपभ्रंश साहित्य भी अधिकतर धर्म से ही संबंधित लिखा गया है। हिन्दी साहित्य में भी अधिकांश साहित्य धार्मिक ही है। अत: यदि धार्मिक साहित्य को साम्प्रदायिक कहकर इसकी उपेक्षा की गई तो लगभग सभी साहित्य की सीमा से बाहर हो जायेगा। इसी संदर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी 'हिन्दी-साहित्य का आदिकाल' नामक पुस्तक में अपने उद्गार प्रकट करते हुए लिखा “इधर जैन अपभ्रंश-चरित काव्यों की जो विपुल सामग्री उपलब्ध हुई है, वह सिर्फ धार्मिक सम्प्रदाय की मोहर लगने मात्र से अलग कर दी जाने योग्य नहीं है। __ स्वयम्भू, चतुर्मुख, पुष्पदन्त और धनपाल जैसे कवि केवल जैन होने के कारण ही काव्य क्षेत्र से बाहर नहीं चले जाते । धार्मिक साहित्य होनेमात्र से कोई रचना साहित्य कोटि से अलग नहीं की जा सकती। यदि ऐसा समझा जाने लगे तो तुलसीदास का रामचरित मानस भी साहित्य क्षेत्र में अविवेच्य हो जायेगा और जायसी का पद्मावत भी साहित्य सीमा के भीतर नहीं घुस सकेगा। वस्तुतः लौकिक कहानियों को आश्रय करके धर्मोपदेश देना इस देश की चिराचरित प्रथा है। केवल नैतिक और धार्मिक या आध्यात्मिक उपदेशों को देखकर यदि हम ग्रन्थों को साहित्य-सीमा से बाहर निकालने लगेंगे तो हमें आदि काव्य से भी हाथ धोना पड़ेगा, तुलसी की रामायण से भी अलग होना पड़ेगा और जायसी को दूर से ही दण्डवत करके बिदा कर देना होगा।" ___यहाँ एक बात यह भी विचारणीय है कि यदि धार्मिक साहित्य को साहित्य की सीमा से बहिष्कृत कर दिया गया तो साहित्य के नाम पर १. बनारसीबिलास, प्रस्तावना, पृष्ठ २ जैन अध्यात्म के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कवि : बनारसीदास केवल अश्लीलता ही शेष रह जायेगी, जिसमें साहित्यिक मूल्यों का नितान्त अभाव रहता है। और यदि कविवर बनारसीदास की केवल जैन साहित्य के लेखकों के नाते साम्प्रदायिक कहकर उपेक्षा की गई, तब तो समीक्षकों की ही साम्प्रदायिक, संकुचित और अनुदार दृष्टि का दोष माना जायेगा, क्योंकि धार्मिक दृष्टि से तो अन्य हिन्दू इस्लाम सम्प्रदाय भी सम्प्रदाय ही हैं, फिर सूर-तुलसी-केशव-कबीर एवं मीरा आदि साम्प्रदायिक क्यों नहीं ? उनका साहित्य भी तो धार्मिक साहित्य ही है। धार्मिक साहित्य के कारण किसी भी कवि को साम्प्रदायिक नहीं कहा जा सकता। धर्म तो भारतीय संस्कृति की आत्मा है। उसके बिना साहित्य की समृद्धि संभव ही नहीं है। __ बनारसीदास का हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान स्वीकार करते हुए डॉ. आनन्दप्रकाश दीक्षित लिखते हैं - "बनारसीदास में सन्तों की सी रूपात्मकता एवं अन्योक्तिमूलक युक्तियाँ, पहेली बनाकर कहने की पद्धति, लोकगीतों की सी राग ध्वनि का निर्वाह तथा भक्तों की सी विनम्रता सब एकसाथ दिखाई देती है। संतों और भक्तों - दोनों के साथ कवि बनारसीदास का मेल मिलाया जा सकता है। उक्तियों में वे संतों के साथ सरलता व भाव स्थिति में तुलसी जैसे भक्त कवियों के साथ बैठाये जा सकते हैं।" डॉ. वासुदेव सिंह, अध्यक्ष हिन्दी विभाग स्नातक महाविद्यालय सीतापुर बनारसीदास के बारे में लिखते हैं - “आपकी गणना कबीर, दादू, सुन्दरदास, गुलाब साहब एवं धर्मदास आदि संत कवियों से की जा सकती है।" डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, हिन्दी विभागाध्यक्ष काशी विश्वविद्यालय वाराणसी ने अपने हृदयोद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है - (115) १. वीरवाणी, जयपुर, बनारसीदास विशेषांक १९९३, पृष्ठ ३ २. वीरवाणी, जयपुर, बनारसीदास विशेषांक १९९३, पृष्ठ ३
SR No.008338
Book TitleAise Kya Pap Kiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size489 KB
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