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ऐसे क्या पाप किए!
पूज्य तारणस्वामी के ग्रन्थों के अध्ययन से स्पष्ट भासित होता है कि उन पर कुन्दकुन्द स्वामी का काफी प्रभाव था। उन्होंने समयसार, प्रवचनसार, अष्टपाहुड़ आदि ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था। योगीन्दुदेव के परमात्मप्रकाश व योगसार भी उनके अध्ययन के अभिन्न अंग रहे होंगे। निश्चय ही तारणस्वामी कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थों के ज्ञाता थे। उन्होंने यत्र-तत्र विहार करके अपने अध्यात्मगर्भित उपदेश से जैनधर्म का प्रचार किया।
श्री तारणस्वामी के विषय में यह एक किंवदन्ती प्रचलित है कि उनके उपदेश से पूरी “हाट" अर्थात् हजारों जैनाजैन जनता उनकी अनुयायी बन गयी थी। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वे स्वयं तो परवार जातीय दिगम्बर जैन थे और उनके अनुयायी तारण समाज में आज भी अनेक जातियों के विभिन्न गोत्रों के लोग सम्मिलित हैं। __कहा भी जाता है कि उनके उपदेश से प्रभावित होकर पाँच लाख तिरेपन हजार तीन सौ उन्नीस (५, ५३, ३१९) व्यक्तियों ने जैनधर्म अंगीकार कर लिया था। उनके निम्नांकित प्रमुख शिष्यों में विभिन्न वर्ग
और जातियों के नाम हैं, जैसे - लक्ष्मण पाण्डे, चिदानन्द चौधरी, परमानन्द विलासी, सत्यासाह तैली, लुकमान शाह मुसलमान । ___ इसप्रकार हम देखते हैं कि तारणस्वामी जाति, धर्म एवं ऊँच-नीच वर्ग के भेद-भाव से दूर उदार हृदय वाले संतपुरुष थे तथा वे रुढ़िवादी परम्परा और पाखण्डवाद पर जीवन भर चोट करते रहे। देखिए उन्हीं के शब्दों में - "जाइकुलं नहु पिच्छदि शुद्ध सम्मत्त दर्शनं पिच्छई।
जाति और कुल से नहीं, बल्कि शुद्ध सम्यग्दर्शन से ही पवित्रता और बड़प्पन आता है।"
आपके ग्रन्थों में अलंकारों की दृष्टि से रूपकों की बहुलता है -
सोलहवीं सदी में एक क्रान्तिकारी संत का उदय
२११ “स्नानं च शुद्ध जलं" - यहाँ शुद्ध आत्मा को ही शुद्ध जल मानकर यह कहा गया है कि जो शुद्ध आत्मा में लय हो जाता है, वही सच्चे जल में स्नान करता है। तथा -
"ध्यानस्य जलं शुद्धं ज्ञानं स्नानं पण्डिता" - अर्थात् पण्डित जन आत्मज्ञानरूप शुद्ध जल से ध्यान का स्नान करते हैं। तथा -
"ज्ञानं मयं शुद्धं, स्नानं ज्ञानं पण्डिता" - अर्थात् ज्ञानमयी शुद्ध जल में ही पण्डित जन स्नान करते हैं।'
स्व. डॉ. हीरालाल जैन ने सन्त तारणस्वामी की रचना, शैली एवं भाषा और विषयवस्तु पर बड़ी सटीक टिप्पणी की है।
वे लिखते हैं - "इन ग्रन्थों की भावभंगी बहुत कुछ अटपटी है। जैनधर्म के मूल सिद्धान्त और अध्यात्मवाद के प्रधान तत्त्व तो इसमें स्पष्ट झलकते हैं। परन्तु ग्रन्थकर्ता की रचना शैली किसी एक सांचे में ढली और एक धारा में सीमित नहीं है।...विचारों का उद्रेक जिसप्रकार जिस ओर चला गया, तब वैसा ग्रथित करके रख दिया तथा इस कार्य में उन्होंने जिस भाषा का अवलम्बन लिया है, वह तो बिल्कुल निजी है।.....न वह संस्कृत है, न कोई प्राकृतिक अपभ्रंश और न कोई देशी प्रचलित भाषा है। मेरी समझ में तो उसे 'तारनतरन भाषा” ही कहना ठीक होगा। जो गहन व मनोहर भाव उनमें भरे हैं, उनका उक्त अटपटी शैली के कारण पूरा लाभ उठाया जाना कठिन है।" स्वर्गीय पं. परमेष्ठीदासजी का भी इस संबंध में यही मत है -
“जिन्होंने अपनी निराली भाषा शैली में उच्चतम आध्यात्मिक तत्त्वों का निरूपण किया। उन श्री तारण स्वामी द्वारा रचित सूत्रों और गाथाओं का यथार्थ अर्थ समझ पाना कठिन काम है, क्योंकि उनकी भाषा-शैली
१. उपदेश शुद्धसार, गाथा १५३
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१. पण्डित पूजा, गाथा ८ का अंश २. वही, गाथा ९ का अंश ३. वही, गाथा १० का अंश ४. तारणतरण श्रावकाचार भूमिका, पृष्ठ ४ (सन् १९४०)