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ऐसे क्या पाप किए !
सहित शुद्ध स्वभाव के अनुभव से ही कर्मकलंक की प्रकृतियाँ भी क्षय को प्राप्त हो जाती हैं। "" तथा
ओं नमः विन्दते जोगी, सिद्धं भवत शास्वतम् । पण्डितो सोऽपि जानन्ते, देवपूजा विधीयते ।।
'ओम्' शब्द में पंचपरमेष्ठी गर्भित हैं। जो इन पंचपरमेष्ठी को अपनी आत्मा में ही अनुभव करते हैं, वे ही शाश्वत सिद्धपद को पाते हैं; क्योंकि ओम् ही ब्रह्म है, यही सच्चा धर्मायतन है, यही सच्ची देवपूजा है; अतः इसी की आराधना करो, इसको कौन ध्वस्त कर सकता है।
इसीप्रकार और भी अनेक स्थलों पर देव - शास्त्र - गुरु को बाहर में न देखकर अन्तर आत्मा में देखने की प्रेरणा देकर बाहर में हुए उपद्रव से चित्त हटाकर और अन्तर आत्मा का यथार्थ ज्ञान देकर आत्मज्ञान संबंधी अज्ञान हटाया है।
बस फिर क्या था, मानों डूबतों को तारणहार मिल गया और इधर तारणस्वामी के भी एकसाथ दो काम बन गये। एक ओर तो जो तत्त्वज्ञान
शून्य थे, केवल बाह्य क्रियाकाण्ड में ही अटके थे; उन्हें तत्त्वदृष्टि मिली तथा दूसरी ओर अपने परमपूज्य आराधना के केन्द्रस्थल वीतरागी जिनबिम्ब और जिनमन्दिरों के विध्वंस से जो आकुल-व्याकुल थे; उनकी व्याकुलता कम हुई, उनका मानस पलटा। इसप्रकार दुखसागर में निमग्न प्राणियों ने शांति की सांस ली।
लगता है उन्हें अपना तारणहार मानकर उनके अनुयायियों ने ही उनका यह “श्री जिन तारणतरणस्वामी” नाम प्रचलित किया, बाद में धीरे-धीरे उन्हें भी वह नाम स्वीकृत हो गया।
जैसा कि उन्होंने स्वयं लिखा भी है -
"जिनउवएसं सारं किंचित् उवएस कहिय सद्भावं । तं जिनतारण रहयं कम्मक्षयं मुक्ति कारणं सुद्धं ।।
२. पण्डित पूजा, श्लोक ३
१. कमल बत्तीसी, श्लोक १३
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सोलहवीं सदी में एक क्रान्तिकारी संत का उदय
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान का जो उपदेश है, उसके कुछ अंश को लेकर 'जिनतारण' नाम से प्रसिद्ध मैंने इस ग्रन्थ की रचना की है। "
उनके नाम में जो 'श्री जिन' विशेषण लगा है, वह निश्चय ही जिनेन्द्र भगवान के अर्थ में नहीं है, परन्तु जिनेन्द्र के भक्त के अर्थ में अवश्य है तथा दिगम्बर मुनि से वे एकदेश जितेन्द्रिय होने से जिनेन्द्र के लघुनन्दन तो थे ही तथा चौथे गुणस्थानवाले को भी जिनवाणी में 'जिन' संज्ञा से अभिहित किया गया है।
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दिगम्बर आचार्य परम्परा के शुद्धाम्नायी संत मुनि श्री तारणस्वामी नि:संदेह एक महान क्रान्तिकारी युगपुरुष थे । वे बचपन से ही उदासीन वृत्तिवाले थे। कहा जाता है कि उन्होंने विवाह नहीं किया था। वे यौवनारम्भ से ही शाश्वत शान्ति की खोज में सांसारिक सुखों के मोह का परित्याग करके विंध्य भूमि की ओर चले गये थे। जीवन के उत्तरार्द्ध में वे मल्हारगढ़ (म.प्र.) के समीप बेतवा नदी के निकट पावन वनस्थली में आत्मसाधनारत रहे। वहीं पर उन्होंने १४ ग्रन्थों की रचना की थी। उन्होंने ६० वर्ष की उम्र में दिगम्बरी मुनिदीक्षा ग्रहण की थी । ६७ वर्ष की उम्र में वे दिवंगत हो गये थे ।
आज उनके अनुयायी समैया या तारण समाज के नाम से जानेपहचाने जाते हैं। तारण समाज का परिचय देते हुए ब्रह्मचारी स्वर्गीय श्री शीतलप्रसादजी ने लिखा है कि- “ये चैत्यालय के नाम से सरस्वती भवन बनाते हैं। वेदी पर शास्त्र विराजमान करते हैं। यद्यपि इनके यहाँ जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा रखने व पूजन करने का रिवाज नहीं है; तथापि ये लोग तीर्थयात्रा करते हैं, मन्दिरों में यत्र-तत्र प्रतिमाओं के दर्शन भी करते हैं। २
१. ज्ञानसमुच्चयसार, श्लोक ९०६
२. तारणतरण श्रावकाचार भूमिका, पृष्ठ ४