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अहिंसा : महावीर की दृष्टि में अभी अपनी यह सभा शान्ति से चल रही है। पर यदि कुछ लोग इसमें उपद्रव करने लगें तो क्या होगा? चिन्ता करने की कोई बात नहीं है, यहाँ कोई उपद्रव होनेवाला नहीं है: मैं तो अपनी बात स्पष्ट करने के लिए मात्र उदाहरण दे रहा हूँ।
हाँ, तो आप बताइये कि यहाँ अभी उपद्रव होने लगे तो क्या होगा?
होगा क्या? कुछ नहीं। कुछ देर तो कुछ नहीं होगा, जबतक व्यवस्थापकों का क्रोध मन तक ही सीमित रहेगा, तबतक तो कुछ नहीं होगा; पर जब क्रोध उनके मन में समायेगा नहीं तो मेरा व्याख्यान बन्द हो जायेगा और यह स्पीकर व्यवस्थापक महोदय के हाथ में होगा। वे लोगों से कहेंगे कि जिनको सुनना हो, शान्ति से सुनें; यदि नहीं सुनना है तो अपने घर चले जायें, यहाँ उपद्रव करने की आवश्यकता नहीं है।
यदि इतने से भी काम न चले और उपद्रव बढ़ता ही चला जाये तो वे उत्तेजित होकर आदेश देने लगेंगे कि वालिन्टियरो! इन्हें बाहर निकाल दो।
इसप्रकार हम देखते हैं कि क्रोधादि भावोंरूप हिंसा की उत्पत्ति पहले मन में, फिर वचन में और उसके बाद काया में होती है। भगवान महावीर ने सोचा कि चोर से निपटने की अपेक्षा तो चोर की अम्मा से निपट लेना
अधिक अच्छा है कि जिससे चोर की उत्पत्ति ही संभव न रहे। यदि हिंसा मन में ही उत्पन्न न होगी तो फिर वाणी और काया में प्रस्फुटित होने का प्रश्न ही उपस्थित न होगा।
अतः भगवान महावीर ने हिंसा के मूल पर प्रहार करना उचित समझा। यही कारण है कि वे कहते हैं कि आत्मा में रागादि की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और आत्मा में रागादिभावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है।
भाई! एक बात यह भी तो है कि यदि हिंसा एकबार किसी के मन में उत्पन्न हो गई तो फिर वह कहीं न कहीं प्रगट अवश्य होगी।
एक मास्टरजी थे। यदि कोई मास्टरजी यहाँ बैठे हों तो नाराज मत होना। वैसे मैं भी तो मास्टर ही हूँ। चिन्ता की कोई बात नहीं है।
अहिंसा : महावीर की दृष्टि में
१७ हाँ ! तो एक मास्टरजी थे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा है कि आज रोटी जरा जल्दी बनाना, मुझे स्कूल जल्दी जाना है।
मास्टरनी बोली - "आज रोटी जल्दी नहीं बन सकती, क्योंकि जयपुर से एक दुबले-पतले से पण्डित आये हैं; मैं तो उनका प्रवचन सुनने जाऊँगी।"
मास्टरजी गर्म होते हुए बोले - “मैं कुछ नहीं समझता, रोटी जल्दी बननी चाहिए।"
बेचारी मास्टरनी घबड़ा गई, आधा प्रवचन छोड़कर आई, जल्दीजल्दी रोटी बनाई; पर जबतक रोटी बनती, तबतक मास्टरजी का माथा मास्टरनी के तवे से भी अधिक गर्म हो गया था और रोटी बन जाने पर भी मास्टरजी बिना रोटी खाये ही स्कूल चले गये।
अब आप ही बताइये कि मास्टरनी को कितना गुस्सा आया होगा? प्रवचन भी छूटा और मास्टरजी भी भखे गये. पर क्या करे? मास्टरजी तो चले गये, घर पर बेचारे बच्चे थे; उसने उनकी धुनाई शुरू कर दी। ____ गुस्सा तो मास्टरजी को भी कम नहीं आ रहा था, क्योंकि भूखे थे न; पर स्कूल में न तो मास्टरनी ही थी और न घर के बच्चे, पराये बच्चे थे; उन्होंने उनकी धुनाई आरंभ कर दी। ___ भाई ! यदि हिंसा एकबार आत्मा में - मन में उत्पन्न हो गई तो फिर वह कहीं न कहीं प्रकट अवश्य होगी; अतः भगवान महावीर ने कहा कि बात ऐसी होनी चाहिए कि हिंसा लोगों के मन में - आत्मा में ही उत्पन्न न हो - यही विचार कर उन्होंने हिंसा-अहिंसा की परिभाषा में यह कहा कि आत्मा में रागादिभावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और आत्मा में रागादिभावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है।
भगवान महावीर का पच्चीससौवाँ निर्वाण वर्ष था। सारे भारतवर्ष में निर्वाण महोत्सव के कार्यक्रम बड़े जोर-शोर से चल रहे थे। भगवान महावीर का धर्मचक्र एवं एक हजार यात्रियों को साथ लेकर हम भी सारे देश में