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________________ १५० आध्यात्मिक भजन संग्रह यदि तोहि कहा नहीं दुख, नरक के असहाय रे । नदी वैतरनी जहाँ जिय, परै अति बिललाय रे ।।३।। तन धनादिक घनपटल सम, छिनकमांहीं बिलाय रे । 'भागचन्द' सुजान इमि जदु-कुल-तिलक गुन गाय रे ।।४ ।। ५०. भववनमें, नहीं भूलिये भाई। भववनमें, नहीं भूलिये भाई। कर निज थलकी याद ।।टेक ।। नर परजाय पाय अति सुंदर, त्यागहु सकल प्रमाद । श्रीजिनधर्म सेय शिव पावत, आतम जासु प्रसाद ।।१।। अबके चूकत ठीक न पड़सी, पासी अधिक विषाद । सहसी नरक वेदना पुनि तहाँ, सुनसी कौन फिराद ।।२ ।। 'भागचन्द' श्रीगुरु शिक्षा बिन, भटका काल अनाद । तू कर्ता तूही फल भोगत, कौन करै बकवाद ।। ३ ।। ५१. अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि, त्रिविध जीव परिनाम बखाने ।।टेक ।। तीव्र कषाय उदय से भावित, दर्वित हिंसादिक अघ ठाने । सो संक्लेश भावफल नरकादिक गति दुख भोगत असहाने ।।१।। शुभ उपयोग कारनन में जो, रागकषाय मंद उदयाने । सो विशुद्ध तसु फल इंद्रादिक, विभव समाज सकल परमाने ।।२।। परकारन मोहादिकतै च्युत, दरसन ज्ञान चरन रस पाने । सो है शुद्ध भाव तसु फलतें, पहुँचत परमानंद ठिकाने ।।३।। इनमें जुगल बंधके कारन, परद्रव्याश्रित हेयप्रमाने । 'भागचन्द' स्वसमय निज हित लखि, तामैं रम रहिये भ्रम हाने ।।४।। ५२. जे सहज होरी के खिलारी जे सहज होरी के खिलारी, तिन जीवन की बलिहारी ।।टेक ।। शांतभाव कुंकुम रस चन्दन, भर ममता पिचकारी। पण्डित भागचन्दजी कृत भजन उड़त गुलाल निर्जरा संवर, अंबर पहरें भारी ।।१।। सम्यकदर्शनादि सँग लेकै, परम सखा सुखकारी। भींज रहे निज ध्यान रंगमें, सुमति सखी प्रियनारी ।।२।। कर स्नान ज्ञान जलमें पुनि, विमल भये शिवचारी। 'भागचन्द' तिन प्रति नित वंदन, भावसमेत हमारी ।।३ ।। ५३. सहज अबाध समाध धाम तहाँ सहज अबाध समाध धाम तहाँ, चेतन सुमति खेलें होरी ।।टेक ।। निजगुन चंदनमिश्रित सुरभित, निर्मल कुंकुम रस घोरी। समता पिचकारी अति प्यारी, भर जु चलावत चहुँ ओरी।।१।। शुभ संवर सुअबीर आडंबर, लावत भरभर कर जोरी। उड़त गुलाल निर्जरा निर्भर, दुखदायक भव थिति टोरी ।।२।। परमानन्द मृदंगादिक धुनि, विमल विरागभावधोरी। 'भागचन्द' दृग-ज्ञान-चरनमय, परिनत अनुभव रँग बोरी ।।३।। ५४. सुन्दर दशलक्षन वृष सुन्दर दशलक्षन वृष, सेय सदा भाई। जासतें ततक्षन जन, होय विश्वराई ।।टेक ।। क्रोध को निरोध शांत, सुधाको नितांत शोध । मानको तजौ भजौ स्वभाव कोमलाई ।।१।। छल बल तजि सदा विमलभाव सरलताई भजि । सर्व जीव चैन दैन, वैन कह सुहाई ।।२।। ज्ञान तीर्थ स्नान दान, ध्यान भान हृदय आन । दया-चरन धारि करन-विषय सब बिहाई ।।३ ।। आलस हरि द्वादश तप, धारि शुद्ध मानस करि । खेहगेह देह जानि, तजौ नेहताई ।।४ ।। sa kabata Antanjidain Bhajan Book pands (७६)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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