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________________ पण्डित भागचन्दजी कृत भजन १४८ आध्यात्मिक भजन संग्रह ४५. धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान (राग दादरा) धनि ते प्रानि, जिनके तत्त्वारथ श्रद्धान ।।टेक ।। रहित सप्त भय तत्त्वारथ में, चित्त न संशय आन । कर्म कर्मफल की नहिं इच्छा, पर में धरत न ग्लानि ।।१।। सकल भाव में मूढदृष्टि तजि, करत साम्यरस पान । आतम धर्म बढ़ावै वा, परदोष न उच. वान ।।२।। निज स्वभाव वा, जैनधर्म में, निज पर थिरता दान। रत्नत्रय महिमा प्रगटावै, प्रीति स्वरूप महान ।।३।। ये वसु अंग सहित निर्मल यह, समकित निज गुन जान । 'भागचन्द' शिवमहल चढ़न को, अचल प्रथम सोपान ।।४।। ४६. जिन स्वपरहिताहित चीन्हा (राग दीपचन्दी जोड़ी) जिन स्वपर हिताहित चीन्हा, जीव तेही हैं साचै जैनी ।।टेक ।। जिन बुधछैनी पैनीतें जड़, रूप निराला कीना। परतें विरच आपमें राचे, सकल विभाव विहीना ।।१।। पुन्य पाप विधि बंध उदय में, प्रमुदित होत न दीना । सम्यकदर्शन ज्ञान चरन निज, भाव सुधारस भीना ।।२।। विषयचाह तजि निज वीरज सजि, करत पूर्वविधि छीना। 'भागचन्द' साधक 8 साधत, साध्य स्वपद स्वाधीना ।।३।। ४७. यही इक धर्ममूल है मीता! यही इक धर्ममूल है मीता! निज समकितसार सहीता ।।टेक ।। समकित सहित नरकपदवासा, खासा बुधजन गीता। तहतें निकसि होय तीर्थंकर, सुरगन जजत सप्रीता ।।१।। स्वर्गवास हू नीको नाहीं, बिन समकित अविनीता। तहँतें चय एकेन्द्री उपजत, भ्रमत सदा भयभीता ।।२।। खेत बहुत जोते हु बीज बिन, रहत धान्यसों रीता। सिद्धि न लहत कोटि तपहूतें, वृथा कलेश सहीता ।।३।। समकित अतुल अखंड सुधारस, जिन पुरुषन में पीता। 'भागचन्द' ते अजर अमर भये, तिनहीने जग जीता ।।४ ।। ४८. बुधजन पक्षपात तज देखो, (राग ठुमरी) बुधजन पक्षपात तज देखो, साँचा देव कौन है इनमें ।।टेक।। ब्रह्मा दंड कमंडलधारि, स्वांत भ्रांत वशि सुरनारिन में। मृगछाला माला-मौंजी पुनि, विषयासक्त निवास नलिनमें ।।१।। शंभू खट्वाअंगसहित पुनि, गिरिजा भोगमगन निशदिनमें। हस्त कपाल व्याल भूषन पुनि, रुंडमाल तन भस्म मलिन में।।२।। विष्णु चक्रधर मदन-बानवश, लज्जा तजि रमता गोपिनमें। क्रोधानल ज्वाजल्यमान पुनि, तिनके होत प्रचंड अरिनमें ।।३ ।। श्री अरहंत परम वैरागी, दूषन लेश प्रवेश न जिनमें । 'भागचन्द' इनको स्वरूप यह, अब कहो पूज्यपनो है किनमें ।।४।। ४९. अरे हो जियरा धर्म में चित्त लगाय रे (राग प्रभाती) अरे हो जियरा धर्म में चित्त लगाय रे ।।टेक ।। विषय विषसम जान भोंदू, वृथा क्यों लुभायरे ।। संग भार विषाद तोकौं, करत क्या नहि भाय रे । रोग-उरग-निवास-वामी, कहा नहिं यह काय रे ।।१।। काल हरिकी गर्जना क्या, तोहि सुन न पराय रे । आपदा भर नित्य तोकौं, कहा नहीं दुःख दायरे ।। २ ।। anuDKailastipata Arpime more made pican
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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