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________________ १४६ आध्यात्मिक भजन संग्रह पण्डित भागचन्दजी कृत भजन करनविषय विषभोजनवत कहा, अंत विसरता न धारै रे ।।४ ।। 'भागचन्द' भवअंधकूप में धर्म रतन काहे डारै रे ।।५।। २९. हरी तेरी मति नर कौनें हरी हरी तेरी मति नर कौनें हरी । तजि चिन्तामन कांच गहत शठ ।।टेक ।। विषय-कषाय रुचत तोकों नित, जे दुखकरन अरी ।।१।। सांचे मित्र सुहितकर श्रीगुरु, तिनकी सुधि विसरी ।।२।। परपरनतिमें आपो मानत, जो अति विपति भरी ।।३।। 'भागचन्द' जिनराज भजन कहुँ, करत न एक घरी ।।४ ।। ४०. आवै न भोगनमें तोहि गिलान आवै न भोगनमें तोहि गिलान ।।टेक ।। तीरथनाथ भोग तजि दीने, तिनमन भय आन । तू तिन” कहुँ डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ।।१।। इन्द्रियतृप्ति काज तू भोगै, विषय महा अघखान । सो जैसे घृतधारा डारे, पावकज्वाल बुझान ।।२।। जे सुख तो तीक्षन दुखदाई, ज्यों मधुलिप्त-कृपान । ताते ‘भागचन्द' इनको तजि आत्म स्वरूप पिछान ।।३।। ४१. मान न कीजिये हो परवीन (राग मल्हार) मान न कीजिये हो परवीन ।।टेक।। जाय पलाय चंचला कमला, तिष्ठै दो दिन तीन । धनजोवन क्षणभंगुर सब ही, होत सुछिन छिन छीन ।।१।। भरत नरेन्द्र खंड-षट-नायक, तेहु भये मद हीन । तेरी बात कहा है भाई, तू तो सहज ही दीन ।।२।। ‘भागचन्द' मार्दव-रससागर, माहिं होहु लवलीन । ताः जगतजाल में फिर कहूँ, जनम न होय नवीन ।।३।। ४२. प्रेम अब त्यागह पुद्गल का प्रेम अब त्यागहु पुद्गलका । अहित मूल यह जाना सुधीजन ।।टेक ।। कृमि-कुल-कलित स्त्रवत नव द्वारन, यह पुतला मलका । काकादिक भखते जु न होता, चाम तना खलका ।।१।। काल-व्याल मुख थित इसका नहिं, है विश्वास पल का। क्षणिक मात्र में विघट जात है, जिमि बुद्बुद जल का ।।२।। 'भागचन्द' क्या सार जानके, तू या सँग ललका। ता” चित अनुभव कर जो तू, इच्छुक शिवफलका ।।३।। ४३. यह मोह उदय दुख पावै (राग दीपचन्दी) यह मोह उदय दुख पावै, जगजीव अज्ञानी ।।टेक।। निज चेतनस्वरूप नहिं जानै, परपदार्थ अपनावै । पर परिनमन नहीं निज आश्रित, यह तहँ अति अकुलावै।।१।। इष्ट जानि रागादिक सेवै, ते विधिबंध बढ़ावै। निजहितहेत भाव चित सम्यक् दर्शनादि नहिं ध्यावै ।।२।। इन्द्रियतृप्ति करन के काजै, विषय अनेक मिलावै । ते न मिलैं तब खेद खिन्न है, समसुख हृदय न ल्यावै ।।३।। सकल कर्मछय लक्षण, लक्षित, मोक्षदशा नहिं चावै । 'भागचन्द' ऐसे भ्रमसेती, काल अनंत गमावै ।।४ ।। ४४. करौ रे भाई, तत्त्वारथ सरधान (राग दीपचन्दी) करौ रे भाई, तत्त्वारथ सरधान । नरभव सुकुल सुक्षेत्र पायके ।।टेक ।। देखन जाननहार आप लखि, देहादिक परमान ।।१।। मोह रागरूष अहित जान तजि, बंधहु विधि दुखदान ।।२।। निज स्वरूप में मगन होय कर, लगन विषय दो भान ।।३।। ___ भागचन्द' साधक कै साधो, साध्य स्वपद अमलान ।।४।। (७४)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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