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________________ १४४ पण्डित भागचन्दजी कृत भजन आध्यात्मिक भजन संग्रह धवल ध्यान शुचि सलिलपूरतें, आस्रव मल नहिं धोये । परद्रव्यनि की चाह न रोकी, विविध परिग्रह ढोये ।।३।। अब निज में निज जान नियत तहाँ निज परिनाम समोये। यह शिव मारग समरस सागर ‘भागचन्द' हित तो ये ।।४ ।। २३. अरे हो अज्ञानी तून कठिन मनुषभव पायो (राग मल्हार) अरे हो अज्ञानी तूने कठिन मनुषभव पायो ।।टेक ।। लोचनरहित मनुषके करमें, ज्यों बटेर खग आयो ।।१।। सो तू खोवत विषयनमाहीं, धरम नहीं चित लायो ।।२।। 'भागचन्द' उपदेश मान अब, जो श्रीगुरु फरमायो ।।३ ।। २४. तेरे ज्ञानावरन दा परदा (राग दीपचन्दी) तेरे ज्ञानावरन दा परदा, तातें सूझत नहिं भेद स्व-पर-दा ।।टेक ।। ज्ञान बिना भवदुख भोगै तू, पंछी जिमि बिन पर-दा।।१।। देहादिक में आपौ मानत, विभ्रममदवश परदा ।।२।। 'भागचन्द' भव विनसै वासी, होय त्रिलोक उपरदा ।।३।। ३५. जीव! तू भ्रमत सदीव अकेला जीव! तू भ्रमत सदीव अकेला । संग साथी कोई नहिं तेरा ।।टेक ।। अपना सुखदुख आप हि भुगतै, होत कुटुंब न भेला । स्वार्थ भ3 सब बिछुरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ।।१।। रक्षक कोइ न पूरन है जब, आयु अंत की बेला । फूटत पारि बँधत नहीं जैसें, दुद्धर-जलको ठेला ।।२।। तन धन जीवन विनशि जात ज्यों, इन्द्रजाल का खेला। 'भागचन्द' इमि लख करि भाई, हो सतगुरु का चेला ।।३।। ३६. चेतन निज भ्रमतें भ्रमत रहै (राग दादरा) चेतन निज भ्रमतें भ्रमत रहै ।।टेक ।। आप अभंग तथापि अंगके, संग महा दुखपुंज वहै । लोहपिंड संगति पावक ज्यों, दुर्धर घन की चोट सहै ।।१।। नामकर्म के उदय प्राप्त कर, नरकादिक परजाय धरै । तामें मान अपनपौ विरथा, जन्म जरा मृत्यु पाय डरै ।।२।। कर्ता होय रागरुष ठानै, परको साक्षी रहत न यहै। व्याप्य सुव्यापक भाव बिना किमि, परको करता होत न यहै।।३।। जब भ्रमनींद त्याग निजमें निज, हित हेत सम्हारत है। वीतराग सर्वज्ञ होत तब, 'भागचन्द' हितसीख कहै ।।४ ।। ३७. सारौ दिन निरफल खोयबौ करै छै (राग खमाच) सारौ दिन निरफल खोयबौ करै छै। नरभव लहिकर प्रानी बिनज्ञान, सारौ दिन निरफल खोयबौ करै छै । परसंपति लखि निजचितमाहीं, विस्था मूरख रोयबौ करै छै ।।१।। कामानल” जरत सदा ही, सुन्दर कामिनी जोयबौ करै छै ।।२।। जिनमत तीर्थस्थान न ठाने, जलसों पुद्गल धोयबो करै छै ।।३।। 'भागचन्द' इमि धर्म बिना शठ, मोहनींद में सोयबौ करै छै।।४।। २८. निज कारज काहे न सारै रे (राग दीपचन्दी) निज कारज काहे न सारै रे, भूले प्रानी ।।टेक ।। परिग्रह भार थकी कहा नाहीं, आरत होत तिहारै ।।१।। रोगी नर तेरी वपुको कहा, निस दिन नाहीं जारै रे ।।२।। कूरकृतांत सिंह कहा जगमें, जीवन को न पछारै रे ।।३।। (७३)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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