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आध्यात्मिक भजन संग्रह
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२८. ऐसे जैनी मुनिमहाराज
ऐसे जैनी मुनिमहाराज, सदा उर मो बसो । । टेक ।।
तिन समस्त परद्रव्यनिमाहीं, अहंबुद्धि तजि दीनी ।
गुन अनन्त ज्ञानादिक मम पुनि, स्वानुभूति लखि लीनी ।। १ ।। जे निजबुद्धिपूर्व रागादिक, सकल विभाव निवारैं । पुनि अबुद्धिपूर्वक नाशनको, अपनें शक्ति सम्हारैं ।। २ ।। कर्म शुभाशुभ बंध उदय में, हर्ष विषाद न राखेँ । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरनतप, भावसुधारस चाखँ || ३ || परकी इच्छा तजि निजबल सजि, पूरव कर्म खिरावैं । सकल कर्मतैं भिन्न अवस्था सुखमय लखि चित चावैं ॥ ४ ॥ उदासीन शुद्धोपयोगरत सबके दृष्टा ज्ञाता । बाहिरूप नगन समताकर, 'भागचन्द' सुखदाता ।।५ ।। २९. सम आराम विहारी
(राग परज) सम आराम विहारी, साधुजन सम आराम विहारी । टेक ।। एक कल्पतरु पुष्पन सेती, जजत भक्ति विस्तारी । एक कंठविच सर्प नाखिया, क्रोध दर्पजुत भारी । राखत एक वृत्ति दोउनमैं, सबहीके उपगारी ।। १ ।। सारंगी हरिबाल चुखावै, पुनि मराल मंजारी । व्याघ्रबाल करि सहित नन्दिनी, व्याल नकुल की नारी । तिनकै चरनकमल आश्रयतैं, अरिता सकल निवारी ।। २ ।। अक्षय अतुल प्रमोद विधायक, ताकौ धाम अपारी । कामधरा विव गढ़ी सो चिरतें, आतमनिधि अविकारी । खनत ताहि लैकर करमें जे, तीक्षण बुद्धि कुदारी ।। ३ ।।
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पण्डित भागचन्दजी कृत भजन
निज शुद्धोपयोगरस चाखत, पर ममता न लगारी । निज सरधान ज्ञान चरनात्मक, निश्चय शिवमगचारी । 'भागचन्द' ऐसे श्रीपति प्रति, फिर फिर ढोक हमारी ॥४ ॥ ३०. ऐसे साधु सुगुरु कब मिल हैं।
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ऐसे साधु सुगुरु कब मिल हैं ।। टेक ॥।
आप तरें अरु परको तारैं, निष्प्रेही निरमल हैं ॥ १ ॥ तिलतुषमात्र संग नहिं जाकै, ज्ञान-ध्यान-गुण-बल हैं ।। २ ।। शान्त दिगम्बर मुद्रा जिनकी, मन्दर तुल्य अचल हैं ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनि को अलि है ॥ ४ ॥ ३१. गिरिवनवासी मुनिराज
(राग सोरठ मल्हार में)
गिरिवनवासी मुनिराज, मन वसिया हमारैं हो। ।टेक ।। कारनविन उपगारी जगके, तारन तरन-जिहाज ।। १ ।। जनम- जरामृत - गद-गंजन को, करत विवेक इलाज || २ || एकाकी जिमि रहत केसरी, निरभय स्वगुन समाज ।। ३ ।। निर्भूषन निर्वसन निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ।। ४ ।। ध्यानाध्ययनमाहिं तत्पर नित, 'भागचन्द' शिवकाज ॥। ५ ।। ३२. जे दिन तुम विवेक बिन खोये ( राग सोरठ ) जे दिन तुम विवेक बिन खोये । । टेक ॥।
मोह वारुणी पी अनादितैं, परपदमें चिर सोये । सुखकरंड चितपिंड आपपद, गुन अनंत नहिं जोये ।। १ ।। होय बहिर्मुख ठानि राग रुख, कर्म बीज बहु बोये । तसु फल सुख दुख सामग्री लखि, चितमें हरषे रोये ।। २ ।।