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________________ १४० आध्यात्मिक भजन संग्रह पण्डित भागचन्दजी कृत भजन २२. धन्य धन्य है घड़ी आजकी धन्य धन्य है घड़ी आजकी, जिनधुनि श्रवन परी । तत्त्वप्रतीत भई अब मेरे, मिथ्यादृष्टि टरी ।।टेक ।। जड़ते भिन्न लखी चिन्मूरति, चेतन स्वरस भरी। अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, परमें सब परिहरी ।।१।। पापपुण्य विधिबंध अवस्था, भासी अतिदुखभरी। वीतराग विज्ञानभावमय, परिनत अति विस्तरी ।।२।। चाह-दाह विनसी वरसी पुनि, समतामेघझरी । बाढ़ी प्रीति निराकुल पदसों, ‘भागचन्द' हमरी ।।३।। २३. जानके सुज्ञानी जैनवानी की सरधा लाइये (राग दीपचन्दी कानेर) जानके सुज्ञानी, जैनवानी की सरधा लाइये ।।टेक।। जा बिन काल अनंते भ्रमता, सुख न मिलै कहूँ प्रानी ।।१।। स्वपर विवेक अखंड मिलत है जाहीके सरधानी ।।२।। अखिलप्रमानसिद्ध अविरुद्धत, स्यात्पद शुद्ध निशानी ।।३।। 'भागचन्द' सत्यारथ जानी, परमधरम रजधानी ।।४ ।। २४. श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे वीतराग गुनधारी वे (राग खमाच) श्रीगुरु हैं उपगारी ऐसे वीतराग गुनधारी वे।।टेक ।। स्वानुभूति रमनी सँग क्रीड़े, ज्ञानसंपदा भारी वे ।।१।। ध्यान पिंजरा में जिन रोकौ, चित खग चंचलचारी वे ।।२।। तिनके चरनसरोरुह ध्यावै, 'भागचन्द' अघटारी वे ।।३।। २५. धन धन जैनी साधु अबाधित धन धन जैनी साधु अबाधित, तत्त्वज्ञानविलासी हो ।।टेक ।। दर्शन-बोधमयी निजमूरति, जिनकों अपनी भासी हो। त्यागी अन्य समस्त वस्तुमें, अहंबुद्धि दुखदा-सी हो ।।१।। जिन अशुभोपयोग की परनति, सत्तासहित विनाशी हो। होय कदाच शुभोपयोग तो, तहँ भी रहत उदासी हो ।।२।। छेदत जे अनादि दुखदायक, दुविधि बंधकी फाँसी हो। मोह क्षोभ रहित जिन परनति, विमल मयंककला-सी हो।।३।। विषय-चाह-दव-दाह खुजावन, साम्य सुधारस-रासी हो। 'भागचन्द' ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो ।।४ ।। २६. शांति वरन मुनिराई वर लखि (राग जंगला) शांति वरन मुनिराई वर लखि । उत्तर गुनगन सहित मूल-गुन, सुभग बरात सुहाई।।टेक ।। तप रथपै आरूढ़ अनूपम, धरम सुमंगलदाई ।।१।। शिवरमनीको पानिग्रहण करि, ज्ञानानन्द उपाई ।।२।। 'भागचन्द' ऐसे बनरा को, हाथ जोर सिरनाई ।।३।। २७. श्रीमुनि राजत समता संग श्रीमुनि राजत समता संग । कायोत्सर्ग समायत अंग ।।टेक ।। करतें नहिं कछु कारज तातें, आलम्बित भुज कीन अभंग। गमन काज कछु हू नहिं तातें, गति तजि छाके निज रसरंग ।।१।। लोचन लखिवौ कछु नाहीं, ता” नासा दृग अचलंग। सुनिवे जोग रह्यो कछु नाहीं, तातै प्राप्त इकंत सुचंग ।।२।। तहँ मध्यान्हमाहिं निज ऊपर, आयो उग्र प्रताप पतंग । कैधौं ज्ञान पवनबल प्रज्वलित, ध्यानानलसौं उछलि फुलिंग ।।३।। चित निराकुल अतुल उठत जहँ, परमानन्द पियूषतरंग। भागचन्द' ऐसे श्रीगुरुपद, वंदत मिलत स्वपद उत्तंग ।।४।। Bra Data (७१)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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