SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ आध्यात्मिक भजन संग्रह ८६. हे हितवांछक प्रानी रे हे हितवांछक प्रानी रे, कर यह रीति सयानी ।।टेक ।। श्रीजिनचरन चितार धार गुन, परम विराग विज्ञानी ।। हरन भयामय स्वपर दयामय, सरधौ वृष सुखदानी । दुविध उपाधि बाध शिवसाधक, सुगुरु भजौ गुणथानी ।।१।। मोह-तिमिर-हर मिहर भजो श्रुत, स्यात्पद जास निशानी। सप्ततत्त्व नव अर्थ विचारह, जो वरनै जिनवानी ।।२।। निज पर भिन्न पिछान मान पुनि, होहु आप सरधानी। जो इनको विशेष जानन सो, ज्ञायकता मुनि मानी ।।३ ।। फिर व्रत समिति गुपति सजि अरु तजि, प्रवृति शुभास्रवदानी। शुद्ध स्वरूपाचरन लीन है, 'दौल' वरौ शिवरानी ।।४ ।। ८७. विषयोंदा मद भानै, ऐसा है कोई वे विषयोंदा मद भानै, ऐसा है कोई वे ।।टेक।। विषय दुःख अर दुखफल तिनको, यौं नित चित्त में ठाने ।।१।। अनुपयोग उपयोग स्वरूपी, तन चेतनको मानै ।।२।। वरनादिक रागादि भावतें, भिन्न रूप तिन जानैं ।।३।। स्वपर जान रुषराग हान, निजमें निज परनति सानै ।।४ ।। अन्तर बाहर को परिग्रह तजि, 'दौल' वसै शिवथानै ।।५।। ८८. कुमति कुनारि नहीं है भली रे कुमति कुनारि नहीं है भली रे, सुमति नारि सुन्दर गुनवाली ।।टेक ।। वासौं विरचि रचौ नित यासौं, जो पावो शिवधाम गली रे। वह कुबजा दुखदा, यह राधा, बाधा टारन करन रली रे।।१।। वह कारी परसौं रति ठानत, मानत नाहिं न सीख भली रे। यह गोरी चिदगुण सहचारिनि, रमत सदा स्वसमाधि-थली रे।।२।। वा संग कुथल कुयोनि वस्यौ नित, तहाँ महादुखबेल फली रे। या संग रसिक भविनकी निजमें, परिनति दौल' भई न चली रे।।३।। पण्डित दौलतरामजी कृत भजन ८९. घड़ि-घड़ि पल-पल छिन-छिन निशदिन घड़ि-घड़ि पल-पल छिन-छिन निशदिन, प्रभुजी का सुमिरन करले रे।। प्रभु सुमिरेतैं पाप कटत हैं, जनममरनदुख हरले रे।।१।।घड़ि।। मनवचकाय लगाय चरन चित, ज्ञान हिये विच धर ले रे।।२।।घड़ि।। 'दौलतराम' धर्मनौका चढ़ि, भवसागर ते तिर ले रे ।।३।।घड़ि।। ९०. जम आन अचानक दावैगा जम आन अचानक दावैगा ।।टेक।। छिनछिन कटत घटत थित ज्यौं जल, अंजुलिको झर जावैगा। जन्म तालतरूते पर जियफल, कोलग बीच रहावैगा। क्यौं न विचार करै नर आखिर, मरन महीमें आवैगा ।।१।। सोवत मृत जागत जीवत ही, श्वासा जो थिर थावैगा। जैसैं कोऊ छिपै सदासौं, कबहूँ अवशि पलावैगा ।।२।। कहूँ कबहूँ कैसें हु कोऊ, अंतक से न बचावैगा। सम्यकज्ञान पियूष पिये सौं, 'दौल' अमरपद पावैगा ।।३।। ९१. तू काहेको करत रति तनमें तू काहेको करत रति तनमें, यह अहितमूल जिम कारासदन ।।टेक ।। चरमपिहित पलरुधिरलिप्त मल, - द्वार सवै छिन छिन में।।१।। आयु-निगड फँसि विपति भरै, सो क्यों न चितारत मनमें ।।२।। सुचरन लाग त्याग अब याको, जो न भ्रमै भववन में ।।३ ।। 'दौल' देहसों नेह देहको, - हेतु कह्यौ ग्रन्थनमें ।।४ ।। ९२. निपट अयाना, तैं आपा नहीं जाना निपट अयाना, तैं आपा नहीं जाना, नाहक भरम भुलाना बे।।टेक ।। पीय अनादि मोहमद मोहयो, परपदमें निज माना बे।। चेतन चिह्न भिन्न जड़तासों ज्ञानदरश रस-साना बे। तनमें छिप्यो लिप्यो न तदपि ज्यों, जलमें कजदल माना बे।।२।। (६४)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy