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________________ १२४ आध्यात्मिक भजन संग्रह अतिदुर्लभ जिनवैन श्रवनकरि, संशयमोह निवारी। 'दौल' स्वपर-हित-अहित जानके, होवह शिवमग चारी ।।४।। ८१. हे नर, भ्रमनींद क्यों न छांडत दुखदाई हे नर, भ्रमनींद क्यों न छांडत दुखदाई। सेवत चिरकाल सोंज, आपनी ठगाई।।हे नर. ।। मूरख अघ कर्म कहा, भेदै नहिं मर्म लहा। लागै दुखज्वालकी न, देहकै तताई।।१।।हे नर. ।। जमके रव बाजते, सुभैरव अति गाजते । अनेक प्रान त्यागते, सुनै कहा न भाई।।२।।हे नर. ।। पर को अपनाय आप-रूपको भुलाय हाय । करन विषय दारु जार, चाहदौं बढ़ाई।।३ ।।हे नर. ।। अब सुन जिनवान, राग-द्वेषको जघान । मोक्षरूप निज पिछान 'दौल', भज विरागताई।।४ ।।हे नर. ।। ८२. अरे जिया, जग धोखे की टाटी झूठा उद्यम लोक करत है, जिसमें निशदिन घाटी ।।टेक. ।। जान बूझके अन्ध बने हैं, आंखन बांधी पाटी ।।१ ।।अरे. ।। निकल जायेंगे प्राण छिनकमें, पड़ी रहेगी माटी ।।२ ।।अरे. ।। 'दौलतराम' समझ मन अपने, दिल की खोल कपाटी ।।३ ।।अरे. ।। ८३. हम तो कबहूँ न हित उपजाये हम तो कबहूँ न हित उपजाये सुकुल-सुदेव-सुगुरु सुसंग हित, कारन पाय गमाये! ||हम तो. ।। ज्यों शिशु नाचत, आप न माचत, लखनहारा बौराये। त्यों श्रुत वाचत आप न राचत, औरनको समुझाये।।१।।हम तो. ।। . m पण्डित दौलतरामजी कृत भजन सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता लखि हरखाये। विषय तजे न रजे निज पदमें, परपद अपद लुभाये।।२।।हम तो.।। पापत्याग जिन-जाप न कीन्हौं, सुमनचाप-तप ताये। चेतन तनको कहत भिन्न पर, देह सनेही थाये।।३ ।।हम तो.।। यह चिर भूल भई हमरी अब कहा होत पछताये । 'दौल' अजौं भवभोग रचौ मत, यौं गुरु वचन सुनाये।।४ ||हम तो.।। ८४. हम तो कबहुँ न निजगुन भाये हम तो कबहुँ न निजगुन भाये। तन निज मान जान तनदुखसुख में बिलखे हरखाये ।।हम तो. ।। तनको गरन मरन लखि तनको, धरन मान हम जाये। या भ्रम भौंर परे भवजल चिर, चहुँगति विपत लहाये।।१।।हम तो. ।। दरशबोधव्रतसुधा न चाख्यौ, विविध विषय-विष खाये। सुगुरु दयाल सीख दइ पुनि पुनि, सुनि, सुनि उर नहि लाये।।२।।हम तो. ।। बहिरातमता तजी न अन्तर-दृष्टि न है निज ध्याये । धाम-काम-धन-रामाकी नित, आश-हुताश जलाये।।३।।हम तो. ।। अचल अनूप शुद्ध चिद्रूपी, सब सुखमय मुनि गाये । 'दौल' चिदानंद स्वगुन मगन जे, ते जिय सुखिया थाये।।४।।हम तो. ।। ८५. हम तो कबहुँ न निज घर आये हम तो कबहुँ न निज घर आये। परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ।।हम तो. ।। परपद निजपद मानि मगन ट्दै, परपरनति लपटाये। शुद्ध बुद्ध सुख कन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये।।१।।हम तो.।। नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । अमल अखण्ड अतुल अविनाशी, आतमगुन नहिं गाये।।२।।हम तो. ।। यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये । an ___'दौल' तजौ अजहूँ विषयनको, सतगुरु वचन सुनाये।।३।।हम तो. ।। wak kata Data
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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