SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह विषयचाहदवदाह नसै नहिं, विन निज सुधा सिंधुमें पैसैं । अब जिनवैन सुने श्रवननतें, मिटे विभाव करूं विधि तैसें।।४ ।।ज्ञानी. ।। ऐसो अवसर कठिन पाय अब, निजहितहेत विलम्ब करेसैं। पछताओ बहु होय सयाने चेतन, 'दौल' छुटो भव भयसै।।५।।ज्ञानी. ।। ७६. अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायौ अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायौ, ज्यौं शुक नभचाल विसरि नलिनी लटकायो।।अपनी. ।। चेतन अविरुद्ध शुद्ध, दरश बोधमय विशुद्ध । तजि जड़-रस-फरस रूप, पुद्गल अपनायौ।।१।।अपनी. ।। इन्द्रियसुख दुख में नित्त, पाग राग रुख में चित्त । दायकभव विपति वृन्द, बन्धको बढ़ायौ।।२।।अपनी. ।। चाह दाह दाहै, त्यागौ न ताहि चाहै। समतासुधा न गाहै जिन, निकट जो बतायौ।।३ ।।अपनी. ।। मानुषभव सुकुल पाय, जिनवर शासन लहाय । 'दौल' निजस्वभाव भज, अनादि जो न ध्यायौ।।४ ।।अपनी. ।। ७७. जीव तू अनादिही भूल्यौ शिवगैलवा जीव तू अनादिही भूल्यौ शिवगैलवा ।।टेक ।। मोहमदवार पियौ, स्वपद विसार दियौ, पर अपनाय लियौ। इन्द्रिसुख में रचियौ, भवतै न भियौ, न तजियौ मनमैलवा।।१।।जीव. ।। मिथ्या ज्ञान आचरन धरिकर कुमरन, तीन लोककी धरन। तामें कियो है फिरन पायो न शरन, न लहायौ सुख शैलवा।।२।।जीव. ।। अब नरभव पायौ, सुथल सुकुल आयौ जिन उपदेश भायौ। 'दौल' झट झिटकायौ, परपरनति दुखदायिनी चुरेलवा।।३।।जीव. ।। Anyo पण्डित दौलतरामजी कृत भजन ७८. शिवपुर की डगर समरससौं भरी शिवपुर की डगर समरससौं भरी, सो विषय विरसरचि चिरविसरी ।।टेक ।। सम्यकदरश बोध-व्रतमय भव, दुखदावानल-मेघझरी ।। ताहि न पाय तपाय देह बहु, जनम मरन करि विपति भरी। काल पाय जिनधुनि सुनि मैं जब, ताहि लहूँ सोई धन्य घरी ।।१।। ते जन धनि या मांहि चरत नित, तिन कीरति सुरपति उचरी। विषयचाह भवराह त्याग अब, 'दौल' हरो रजरहसअरी ।।२।। ७९. तोहि समझायो सौ सौ बार तोहि समझायो सौ सौ बार, जिया तोहि समझायो। देख सुगुरु की परहित में रति, हितउपदेश सुनायो ।।तोहि. ।। विषयभुजंग सेय दुख पायो, पुनि तिनसौं लपटायो। स्वपद विसार रच्यौ परपदमें, मद रत ज्यौं बोरायो।।१।।तोहि. ।। तन धन स्वजन नहीं हैं तेरे, नाहक नेह लगायो। क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संतसुहायो।।२।।तोहि.।। अबहू समझ कठिन यह नरभव, जिन वृष बिना गमायो। ते विलखें मनि डार उदधिमें, 'दौलत' को पछतायो।।३।।तोहि. ।। ८०. न मानत यह जिय निपट अनारी न मानत यह जिय निपट अनारी, सिख देत सुगुरु हितकारी ।।टेक ।। कुमतिकुनारि संग रति मानत, सुमतिसुनारि बिसारी ।। नर परजाय सुरेश चहैं सो, चख विषविषय विगारी। त्याग अनाकुल ज्ञान चाह, पर-आकुलता विसतारी ।।१।। अपनी भूल आप समतानिधि, भवदुख भरत भिखारी। परद्रव्यन की परनति को शठ, वृथा वनत करतारी ।।२।। जिस कषाय-दव जरत तहाँ, अभिलाष छटा घृत डारी। . दुखसौं डरै करै दुखकारनतें नित प्रीति करारी ।।३।।
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy