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________________ १२० आध्यात्मिक भजन संग्रह ७२. लखो जी या जिय भोरे की बातें लखो जी या जिय भोरे की बातें, नित करत अहित हित घातै ।।टेक।। जिन गनधर मुनि देशब्रती समकिती सुखी नित जाते। सो पय ज्ञान न पान करत न, अघात विषयविष खा ।।१।लखो.।। दुखस्वरूप दुखफलद जलदसम, टिकत न छिनक बिलाते। तजत न जगत भजत पतित नित, रचत न फिरत तहांत।।२।लखो.।। देह-गेह-धन-नेह ठान अति, अघ संचत दिनरातें । कुगति विपति फलकी न भीत, निश्चिंत प्रमाददशातें।।३।।लखो.।। कबहुँ न होय आपनो पर, द्रव्यादि पृथक चतुघारौं । पै अपनाय लहत दुख शठ नौ, हतन चलावत लाते।।४।।लखो. ।। शिवगृहद्वार सार नरभव यह, लहि दश दुर्लभतारौं । खोवत ज्यौं मनि काग उड़ावत, रोवत रंकपना ।।५।।लखो. ।। चिदानन्द निद्वंद स्वपद तज, अपद विपद-पद रातें । कहत-सुशिखगुरु गहत नहीं उर, चहत न सुख समतात।।६।।लखो. ।। जैनवैन सुन भवि बहु भव हर, छूटे द्वंद दशातें । तिनकी सुकथा सुनत न मुनत न, आतम-बोध कला ।।७।।लखो. ।। जे जन समुझि ज्ञानदृगचारित, पावन पयवर्षात । तापविमोह हस्यो तिनको जस, 'दौल' त्रिभोन विख्या ।।८लखो. ।। ७३. सुनो जिया ये सतगुरु की बातें सुनो जिया ये सतगुरु की बातें, हित कहत दयाल दया तैं ।।टेक।। यह तन आन अचेतन है तू, चेतन मिलत न यारौं। तदपि पिछान एक आतमको, तजत न हठ शठ-तात।।१।।सुनो. ।। चहुँगति फिरत भरत ममताको, विषय महाविष खाते। तदपि न तजत न रजत अभागै, दृग व्रत बुद्धिसुधारौं।।२।।सुनो.|| ... " " पण्डित दौलतरामजी कृत भजन मात तात सुत भ्रात स्वजन तुझ, साथी स्वारथ नाते। तू इन काज साज गृहको सब, ज्ञानादिक मत घातै।।३।।सुनो.।। तन धन भोग संजोग सुपन सम, वार न लगत विलातें। ममत न कर भ्रम तज तू भ्राता, अनुभव-ज्ञान कलात।।४।।सुनो.।। दुर्लभ नर-भव सुथल सुकुल है, जिन उपदेश लहा तैं। 'दौल' तजो मनसौं ममता ज्यों, निवडो द्वंद दशात।।५।।सुनो. ।। ७४. मोही जीव भरम तमतें नहिं मोही जीव भरम तमतें नहिं, वस्तुस्वरूप लखै है जैसैं ।।टेक ।। जे जे जड़ चेतन की परनति, ते अनिवार परिनवै वैसे। वृथा दुःखी शठ कर विकलप यौं, नहिं परिनवें परिन ऐसें ।।१।। अशुचि सरोग समल जड़मूरत, लखत विलात गगनघन जैसैं । सो तन ताहि निहार अपनपो, चहत अबाध रहै थिर कैसैं ।।२।। सुत-पित-बंधु-वियोगयोग यौं, ज्यौं सराय जन निकसै पैसैं। विलखत हरखत शठ अपने लखि, रोवत हँसत मत्तजन जैसैं ।।३।। जिन-रवि-वैन किरन लहि जिन निज, रूप सुभिन्न कियौ पर में सैं। सो जगमौल 'दौल' को चिर-थित, मोहविलास निकास हुदैसैं ।।४।। ७५. ज्ञानी जीव निवार भरमतम ज्ञानी जीव निवार भरमतम, वस्तुस्वरूप विचारत ऐसैं ।।टेक ।। सुत तिय बंधु धनादि प्रगट पर, ये मुझते हैं भिन्नप्रदेशैं। इनकी परनति है इन आश्रित, जो इन भाव परनवें वैसे।।१।।ज्ञानी. ।। देह अचेतन चेतन मैं, इन परनति होय एकसी कैसैं । पूरनगलन स्वभाव धरै तन, मैं अज अचल अमल नभ जैसे।।२।।ज्ञानी. ।। पर परिनमन न इष्ट अनिष्ट न, वृथा रागरुष द्वंद भयेसै। नसै ज्ञान निज फँसै बंधमें, मुक्त होय समभाव लयेसैं।।३ । ज्ञानी. ।। (६१)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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