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________________ १२८ आध्यात्मिक भजन संग्रह सकलभाव निज निज परनतिमय, कोई न होय बिराना बे। तू दुखिया परकृत्य मानि ज्यौं, नभताड़न-श्रम ठाना बे ।।३।। अजगनमें हरि भूल अपनपो, भयो दीन हैराना बे। 'दौल' सुगुरु धुनि सुनि निजमें निज, पाय लयो सुखथाना बे।।४।। ९३. निजहितकारज करना भाई! निजहितकारज करना भाई! निजहित कारज करना ।।टेक. ।। जनममरन दुख पावत जातें, सो विधिबंध कतरना। ज्ञानदरस अर राग फरस रस, निजपर चिह्न भ्रमरना । संधिभेद बुधिछैनीते कर, निज गहि पर परिहरना।।१।।निज. ।। परिग्रही अपराधी शंकै, त्यागी अभय विचरना। त्यौं परचाह बंध दुखदायक, त्यागत सबसुख भरना।।२ ।।निज. ।। जो भवभ्रमन न चाहे तो अब, सुगुरुसीख उर धरना। 'दौलत' स्वरस सुधारस चाखो, ज्यौं विनसै भवभरना।।३।।निज. ।। ९४. मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन मनवचतन करि शुद्ध भजो जिन, दाव भला पाया। अवसर मिलै नहिं ऐसा, यौ सतगुरु गाया ।। बस्यो अनादिनिगोद निकसि फिर, थावर देह धरी । काल असंख्य अकाज गमायो, नेक न समुझि परी ।।१।। चिंतामनि दुर्लभ लहिये ज्यौं, त्रस परजाय लही। लट पिपिल अलि आदि जन्ममें, लयो न ज्ञान कहीं ।।२।। पंचेन्द्रिय पशु भयो कष्टते, तहाँ न बोध लह्यो । स्वपर विवेकरहित बिन संयम, निशदिन भार वह्यो ।। ३ ।। चौपथ चलत रतन लहिये ज्यौं, मनुजदेह पाई। सुकुल जैनवृष सतसंगति यह, अतिदुर्लभ भाई ।।४।। पण्डित दौलतरामजी कृत भजन यौं दुर्लभ नरदेह कुधी जे, विषयन संग खोवैं । ते नर मूढ अजान सुधारस, पाय पाँव धोवै ।।५ ।। दुर्लभ नरभव पाय सुधी जे, जैन धर्म सेवें। 'दौलत' ते अनंत अविनाशी, सुख शिवका वेवै ।।६।। ९५. मोहिड़ा रे जिय! मोहिड़ा रे जिय! हितकारी न सीख सम्हारै । भववन भ्रमत दुखी लखि याको, सुगुरुदयालु उचारै ।।मोहिड़ा. ।। विषय भुजंगमय संग न छोड़त, जो अनन्तभव मारै। ज्ञान विराग पियूष न पीवत, जो भवव्याधि विडारै।।१।।मोहिड़ा. ।। जाके संग दुरै अपने गुन, शिवपद अन्तर पारै। ता तनको अपनाय आप चिन-मूरतको न निहारै।।२ ।।मोहिड़ा. ।। सुत दारा धन काज साज अघ, आपन काज विगारै। करत आपको अहित आपकर, ले कृपान जल दारै।।३।।मोहिड़ा. ।। सही निगोद नरककी वेदन, वे दिन नाहिं चितारै । 'दौल' गई सो गई अबहू नर, धर दृग-चरन सम्हारै।।४ ।।मोहिड़ा. ।। ९६. सौ सौ बार हटक नहिं मानी सौ सौ बार हटक नहिं मानी, नेक तोहि समझायो रे ।।टेक. ।। देख सुगुरुकी परहित में रति, हित उपदेश सुनायो रे ।। विषयभुजंगसेय दुखपायो, फुनि तिनसों लपटायो रे । स्वपदविसार रच्यो परपदमें, मदरत ज्यों बोरायो रे ।।१।। तन धन स्वजन नहीं है तेरे, नाहक नेह लगायो रे।। क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संतसुहायो रे ।।२।। अब हू समझ कठिन यह नरभव, जिनवृष बिना गमायो रे। ते विलखें मणिडार उदधिमें, 'दौलत' को पछतायो रे ।।३।। (६५)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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