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आध्यात्मिक भजन संग्रह
ब्याह करूँ सुत जस जग गावै, लग्यौ रहे या भावनमें ॥ २ ॥ तोकौं ।। दरव परिनमत अपनी गौंत तू क्यों रहत उपायनमें ।। ३ । । तोकौं ।। सुख तो है संतोष करनमें, नाहीं चाह बढ़ावनमें ॥ ४ ॥ । तोकौं सुख है बुधजनकी संगति, कै सुख शिवपद पावनमें। । ५ । । तोकौं ।। १०. नरभव पाय फेरि दुख भरना
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(राग बिलावल धीमा तेतालो)
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नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा काज न करना हो । नरभव. । । टेक ।। नाहक ममत ठानि पुद्गलसौं, करम जाल क्यौं परना हो । १ । ।नरभव. ।। यह तो जड़ तू ज्ञान अरूपी, तिल तुष ज्यौं गुरु वरना हो राग दोष तजि भजि समताकौं, कर्म साथके हरना हो । । २ । । नरभव. ।। यो भव पाय विषय-सुख सेना, गज चढ़ि ईंधन ढोना हो । 'बुध' समुझि से जिनवर पद, ज्यौं भवसागर तरना हो ।। ३ । ।नरभव. ।। ११. आगें कहा करसी भैया
(राग आसावरी जलद तेतालो)
आ कहा करसी भैया, आजासी जब काल रे ।। आगें. । । टेक ॥। यहां तौ तैनें पोल मचाई, वहाँ तौ होय सम्हाल रे ।। १ ।। आरौं. ।। झूठ कपट करि जीव सताये, हर्या पराया माल रे । सम्पति सेती धाप्या नाहीं, तकी विरानी बाल रे ।। २ ।। आगें. ।। सदा भोग में मगन रह्या तू, लख्या नहीं निज हाल रे। सुमरन दान किया नहिं भाई, हो जासी पैमाल रे ।। ३ ।। आगें. ।। जोन में जुवती संग भूल्या, भूल्या जब था बाल रे । अब हुँ धारो बुधजन समता, सदा रहहु खुश हाल रे ॥४ ॥ । आरौं. ।। १२. बाबा मैं न काहूका
बाबा! मैं न काहूका, कोई नहीं मेरा रे ।। बाबा. । ।टेक
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सुर नर नारक तिरयक गति मैं, मोकों करमन घेरा रे ।। १ । ।बाबा. ।।
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(४२)
पण्डित बुधजनजी कृत भजन
मात पिता सुत तिय कुल परिजन, मोह गहल उरझेरा रे।
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तन धन बसन भवन जड़ न्यारे, हूँ चिन्मूरत न्यारा रे ।। २ । । बाबा . ।। मुझ विभाव जड़ कर्म रचत हैं, करमन हमको फेरा रे विभाव चक्र तजि धारि सुभावा अब आनन्दघन हेरा रे ।। ३ । । बाबा. ।। खरच खेद नहीं अनुभव करते, निरखि चिदानन्द तेरा रे जप तप व्रत श्रुत सार यही है, बुधजन कर न अबेरा रे ।।४ । । बाबा. ।। १३. धर्म बिन कोई नहीं अपना
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धर्म बिन कोई नहीं अपना,
सब सम्पत्ति धन थिर नहिं जगमें, जिसा रैन सपना ।। धर्म. । । टेक ॥। आगे किया सो पाया भाई, याही है निरना ।
अब जो करैगा सो पावैगा, तातैं धर्म करना ।। १ ।। धर्म ।। ऐसे सब संसार कहत है, धर्म कियें तिरना । परपीड़ा बिसनादिक सेवैं, नरकविषै परना ।। २ ।। धर्म. ।। नृपके घर सारी सामग्री, ताकैं ज्वर तपना ।
अरु दारिद्रीकैं हू ज्वर है, पाप उदय थपना ।। ३ । । धर्म. ।। नाती तो स्वारथ के साथी, तोहि विपत भरना ।
वन गिरि सरिता अगनि युद्धमैं, धर्महिका सरना ।।४ । । धर्म. ।। चित बुधजन सन्तोष धारना, पर चिन्ता हरना । विपति पड़े तो समता रखना, परमातम जपना ।।५ ।। धर्म. ।। १४. निजपुर में आज मची होरी (तथा) निजपुर में आज मची होरी ।। निज. ॥ टेक ॥।
उमँगि चिदानंदजी इत आये, उत आई सुमतीगोरी । । १ । । निज. ।। लोकलाज कुलकानि गमाई, ज्ञान गुलाल भरी झोरी ॥ २ ॥ निज. ।। समकित केसर रंग बनायो । चारित की पिचुकी छोरी ।। ३ । । निज. ।।