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________________ पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन आध्यात्मिक भजन संग्रह राग भावतें सज्जन मानें, दोष भावतें दुर्जन जानैं । राग दोष दोऊ मम नाहीं, ‘द्यानत' मैं चेतनपदमाहीं ।।३ ।। १२१. हमारो कारज कैसें होय ...... कारण पंच मुकति मारगके, जिनमें के हैं दोय ।।हमारो. ।। हीन संहनन लघु आयूषा, अल्प मनीषा जोय । कच्चे भाव न सच्चे साथी, सब जग देख्यो टोय ।।हमारो. ।।१।। इन्द्री पंच सुविषयनि दौरें, मानैं कह्या न कोय। साधारन चिरकाल वस्यो मैं, धरम बिना फिर सोय ।।हमारो. ।।२।। चिन्ता बड़ी न कछु बनि आवै, अब सब चिन्ता खोय। 'द्यानत' एक शुद्ध निजपद लखि, आपमें आप समोय ।।हमारो. ।।३।। १२२. हमारो कारज ऐसे होय ...... आतम आतम पर पर जानें, तीनौं संशय खोय ।।हमारो. ।। अंत समाधिमरन करि तन तजि, होय शक्र सुरलोय । विविध भोग उपभोग भोगवै, धरमतनों फल सोय ।।हमारो. ।।१।। पूरी आयु विदेह भूप है, राज सम्पदा भोय । कारण पंच लहै गहै दुद्धर, पंच महाव्रत जोय ।।हमारो. ।।२।। तीन जोग थिर सहै परीसह, आठ करम मल धोय। 'द्यानत' सुख अनन्त शिव विलसै, जनमैं मरै न कोय ।।हमारो. ।।३।। १२३. हमारे ये दिन यों ही गये जी ...... कर न लियो कछु जप तप जी, कछु जप तप, बहु पाप बिसाहे नये जी ।।हमारे. ।।१।। तन धन ही निज मान रहे, निज मान रहे, कबहूँ न उदास भये जी ।।हमारे. ।।२।। 'द्यानत' जे करि हैं करुना, करि हैं करुना, तेइ जीव लेखेमें लये जी ।।हमारे. ।।३।। १२४. कब हौं मुनिवरको व्रत धरिहौं ........ सकल परिग्रह तिन सम तजिकै, देहसों नेह न करिहौं। कब.।।१।। कब बावीस परीषह सहिकै, राग दोष परिहरिहौं।।कब.।।२।। 'द्यानत' ध्यान-यान कब चढ़िकै, भवदधि पार उतरिहौं। कब.।।३।। १२५. कहत सुगुरु करि सुहित भविकजन! ...... पुदगल अधरम धरम गगन जम, सब जड़ मम नहिं यह सुमरहु मन ।। नर पशु नरक अमर पर पद लखि, दरब करम तन करम पृथक भन । तुम पद अमल अचल विकलप बिन, अजर अमर शिव अभय अखयगन ।।१।। त्रिभुवनपतिपद तुम पटतर नहिं, तुम पद अतुल न तुल रविशशिगन । वचन कहन मन गहन शकति नहिं, सुरत गमन निज जिन गम परनम।।२।। इह विधि बंधत खुलत इह विधि जिय, इन विक्लपमहिं, शिवपद सधत न। निरविकलप अनुभव मन सिधि करि, करम सघन वनदहन दहन-कन ।।३।। १२६. गुरु समान दाता नहिं कोई ...... भानु-प्रकाश न नाशत जाको, सो अँधियारा डारै खोई।।गुरु. ।। मेघसमान सबनपै बरसै, कछु इच्छा जाके नहिं होई। नरक पशुगति आग मांहिते, सुरग मुक्त सुख थापै सोई।।गुरु. ।।१।। तीन लोक मन्दिरमें जानौ, दीपक सम परकाशक-लोई। दीपतलै अँधियार भर्यो है, अन्तर बहिर विमल है जोई।।गुरु. ।।२।। तारन तरन जिहाज सुगुरु हैं, सब कुटुम्ब डोबै जगतोई। 'द्यानत' निशिदिन निरमल मनमें, राखोगुरु-पद-पंकज दोई।।गुरु. ।।३।। १२७. धनि धनि ते मुनि गिरिवनवासी ...... मार मार जगजार जारते, द्वादश व्रत तप अभ्यासी ।।धनि. ।। कौड़ी लाल पास नहिं जाके, जिन छेदी आसापासी। ___ आतम-आतम, पर-पर जानें, द्वादश तीन प्रकृति नासी ।।धनि. ।।१।। manLDKailashinata Antanjidain Bhajan Book pants (२६)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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