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________________ आध्यात्मिक भजन संग्रह आप समान सबै जिय जानौं, राग दोषकों त्याग।।मेरे.।।४ ।। 'द्यानत' यह विधि जब बनि आवै, सोई घड़ी बड़भाग ।।मेरे. ।।५।। ११३. मोहि कब ऐसा दिन आय है सकल विभाव अभाव होहिंगे, विकलपता मिट जाय है।।मोहि. ।। यह परमातम यह मम आतम, भेद-बुद्धि न रहाय है। ओरनिकी का बात चलावै, भेद-विज्ञान पलाय है।।मोहि. ।।१।। जानें आप आपमें आपा, सो व्यवहार विलाय है। नय-परमान-निक्षेपन-माहीं, एक न औसर पाय है।।मोहि. ।।२।। दरसन ज्ञान चरनके विकलप, कहो कहाँ ठहराय है। 'द्यानत' चेतन चेतन है है, पुदगल पुदगल थाय है।।मोहि. ।।३।। ११४. ये दिन आछे लहे जी लहे जी ...... देव धरम गुरूकी सरधा करि, मोह मिथ्यात दहे जी दहे जी।।ये.।।१।। प्रभु पूजे सुने आगमको, सतसंगति माहिं रहे जी रहे जी।।ये. ।।२।। 'द्यानत' अनुभव ज्ञानकला कछु, संजम भाव गहे जी गहे जी।।ये.।।३।। ११५. रे जिय! जनम लाहो लेह ...... चरन ते जिन भवन पहुँचें, दान दें कर जेह।।रे जिय. ।। उर सोई जामैं दया है, अरु रुधिरको गेह। जीभ सो जिन नाम गावै, सांचसौं करै नेह। रे जिय.।।१।। आंख ते जिनराज देखें, और आँखें खेह। श्रवन ते जिनवचन सुनि शुभ, तप तपै सो देह ।।रे जिय.।।२।। सफल तन इह भांति है है, और भांति न केह। है सुखी मन राम ध्यावो, कहैं सदगुरु येहारे जिय. ।।३।। ११६. विपतिमें धर धीर, रे नर! विपतिमें धर धीर सम्पदा ज्यों आपदा रे!, विनश जै है वीर।।रे नर. ।।१।। धूप छाया घटत बढ़े ज्यों, त्योंहि सुख दुख पीर। रे मन.।।२।। दोष ‘द्यानत' देय किसको, तोरि करम-जंजीर। रे मन.।।३।। पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन ११७. समझत क्यों नहिं वानी, अज्ञानी जन ...... स्यादवाद-अंकित सुखदायक, भाषी केवलज्ञानी ।।समझत. ।। जास लखें निरमल पद पावै, कुमति कुगतिकी हानी। उदय भया जिहिमें परगासी, तिहि जानी सरधानी ।।समझत.।।१।। जामें देव धरम गुरु वरनें, तीनौं मुकति निसानी। निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला प्रानी । समझत. ।।२।। या जगमांहि तुझे तारनको, कारन नाव बखानी। 'द्यानत' सो गहिये निहचैसों, हूजे ज्यों शिवथानी ।।समझत. ।।३।। ११८. संसारमें साता नाहीं वे ...... छिनमें जीना छिनमें मरना, धन हरना छिनमाहीं वे।।संसार. ।।१।। छिनमें भोगी छिनमें रोगी, छिनमें छय-दुख पाहीं वे।।संसार.।।२।। 'द्यानत' लखके मुनि होवें जे, ते पावै सुख ठाहीं वे।।संसार.।।३।। ११९. सोग न कीजे बावरे! मरें पीतम लोग .... जगत जीव जलबुदबुदा, नदी नाव सँजोग।।सोग. ।। आदि अन्तको संग नहिं, यह मिलन वियोग। कई बार सबसों भयो, सम्बन्ध मनोग ।।सोग. ।।१।। कोट वरष लौं रोइये, न मिलै वह जोग। देखें जानैं सब सुनैं, यह तन जमभोग ।।सोग. ।।२।। हरिहर ब्रह्मासे खये, तू किनमें टोग। 'द्यानत' भज भगवन्त जो, विनसै यह रोग ।।सोग. ।।३।। १२०. हम न किसीके कोई न हमारा, झूठा है जगका ब्योहारा ...... तनसम्बन्धी सब परिवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ।।हम. ।। पुन्य उदय सुखका बढ़वारा, पाप उदय दुख होत अपारा। पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सब देखन जानन हारा ।।१।। मैं तिहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर संजोग भया बहु मेला। थिति पूरी करि खिर खिर जाहीं, मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं।।२।। ....... sa kabata Antanjidain Bhajan Book pants (२५)
SR No.008336
Book TitleAdhyatmik Bhajan Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size392 KB
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