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आध्यात्मिक भजन संग्रह जा दुख देख दुखी सब जग द्वै, सो दुख लख सुख द्वै तासी। जाकों सब जग सुख मानत है, सो सुख जान्यो दुखरासी।।धनि. ।।२।। बाहिज भेष कहत अंतर गुण, सत्य मधुर हित मित भासी।
"द्यानत" ते शिवपंथ पथिक हैं, पांव परत पातक जासी ।।धनि. ।।३।। १२८. भाई धनि मुनि ध्यान-लगायके खरे हैं मूसल भारसी धार पर है बिजुली कड़कत सोर करै है।।भाई. ।।१।। रात अँध्यारी लोक डरे हैं, साधुजी आपनि करम हरे हैं।।भाई.।।२।। झंझा पवन चहँदिशि बाजै, बादर घूम घूम अति गाऊँ।।भाई. ।।३।। ड्स मसक, बहु दुख उपराजै, 'द्यानत' लाग रहे निज काजै। भाई.।।४।। १२९. यारी कीजै साधो नाल ......
आपद मेटै सम्पद भैंटे, बेपरवाह कमाल।।यारी. ।।१।। परदुख दुखी सुखी निज सुखसों, तन छीने मन लाल।।यारी.।।२।। राह लगावै ज्ञान जगावै, 'द्यानत' दीनदयाल।।यारी.।।३।। १३०. सोहां दीव (शोभा देवें) साधु तेरी बातड़ियां ...... दोष मिटावें हरष बढ़ावै, रोग सोग भय घातड़ियां।।सोहां. ।।१।। जग दुखदाता तुमही साता, धनि ध्यावै उठि प्रातड़ियां।।सोहां.।।२।। 'द्यानत' जे नरनारी गावै, पावै सुख दिन रातड़ियां।।सोहां.।।३।। १३१. गौतम स्वामीजी मोहि वानी तनक सुनाई ...... जैसी वानी तुमने जानी, तैसी मोहि बताई।।गौतम. ।।१।। जा वानी” श्रेणिक समझ्यो, क्षायक समकित पाई।।गौतम.।।२।। 'द्यानत' भूप अनेक तरे हैं, वानी सफल सुहाई।।गौतम.।।३ ।। १३२. जिनवानी प्रानी! जान लै रे ...... छहों दरब परजाय गुन सरब, मन नीके सरधान लै रे।।जिनवानी. ।।१।। देव धरम गुरु निहचै धर उर, पूजा दान प्रमान लै रे।।जिनवानी.।।२।। 'द्यानत' जान्यो जैन बखान्यो, ॐ अक्षर मन आन लैरे। जिनवानी.।।३।।
पण्डित द्यानतरायजी कृत भजन १३३. वे प्राणी! सुज्ञानी, जिन जानी जिनवानी ...... चन्द सूर हू दूर करें नहिं, अन्तरतमकी हानी।।वे. ।।१।। पक्ष सकल नय भक्ष करत है, स्यादवादमें सानी।।वे.।।२।। 'द्यानत' तीनभवन-मन्दिरमें, दीवट एक बखानी।।वे.।।३।। १३४. मैं न जान्यो री! जीव ऐसी करैगो ...... मोसौं विरति कुमतिसों रति कै, भवदुख भूरि भरैगो।।मैं. ।।१।। स्वारथ भूलि भूलि परमारथ, विषयारथमें परैगो।।मैं.।।२।। 'द्यानत' जब समतासों राचै, तब सब काज सरैगो।।मैं.।।३।। १३५. रे जिय! क्रोध काहे करै......
देखकै अविवेकि प्रानी, क्यों विवेक न धरै ।।रे जिय. ।। जिसे जैसी उदय आवै, सो क्रिया आचरै। सहज तू अपनो बिगारै, जाय दुर्गति परै ।।रे जिय. ।।१।। होय संगति-गुन सबनिकों, सरव जग उच्चरै। तुम भले कर भले सबको, बुरे लखि मति जरै।।रे जिय. ।।२।। वैद्य परविष हर सकत नहिं, आप भखि को मरै। बहु कषाय निगोद-वासा, छिमा ‘द्यानत' तरै ।।रे जिय. ।।३।। १३६. सबसों छिमा छिमा कर जीव! ......
मन वच तनसों वैर भाव तज, भज समता जु सदीव ।।सबसों. ।। तपतरु उपशम जल चिर सींच्यो, तापस शिवफल हेत। क्रोध अगनि छिनमाहिं, जरावै, पावै नरक-निकेत ।।सबसौं. ।।१।। सब गुनसहित गहत रिस मनमें, गुन औगुन है जात। जैसैं प्रानदान भोजन ढ, सविष भये तन घात ।।सबसौं. ।।२।। आप समान जान घट घटमें, धर्ममूल यह वीर। 'द्यानत' भवदुखदाह बुझावै, ज्ञान सरोवर नीर ।।सबसौं. ।।३।।
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