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अध्यात्मनवनीत
जो अमर अनुपम अतुल शिव अर परम उत्तमविमल है। पाचुके ऐसा मुक्ति सुख जिनभावना भा नेक नर ।। १६२ ।। जो निरंजन हैं नित्य हैं त्रैलोक्य महिमावंत हैं । वे सिद्ध दर्शन - ज्ञान अर चारित्र शुद्धि दें हमें ।।१६३ ।। इससे अधिक क्या कहें हम धर्मार्थकाम रु मोक्ष में । या अन्य सब ही कार्य में है भाव की ही मुख्यता ।। १६४ । । इसतरह यह सर्वज्ञ भासित भावपाहुड जानिये । भाव से जो पढ़ें अविचल थान को वे पायेंगे ।। १६५ ।।
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मोक्षपाहुड़
परद्रव्य को परित्याग पाया ज्ञानमय निज आतमा । शत बार उनको हो नमन निष्कर्म जो परमातमा ।। १ । परमपदथित शुध अपरिमित ज्ञान-दर्शनमय प्रभु । को नमन कर हे योगिजन ! परमात्म का वर्णन करूँ ।। २ ।। योगस्थ योगीजन अनवरत अरे! जिसको जान कर । अनंत अव्याबाध अनुपम मोक्ष की प्राप्ति करें ||३|| त्रिविध आतमराम में बहिरातमापन त्यागकर । अन्तरात्म के आधार से परमात्मा का ध्यान धर ||४|| ये इन्द्रियाँ बहिरातमा अनुभूति अन्तर आतमा । जो कर्ममल से रहित हैं वे देव हैं परमातमा ||५|| है परमजिन परमेष्ठी है शिवंकर जिन शास्वता । केवल अनिन्द्रिय सिद्ध है कल-मलरहित शुद्धातमा ||६|| जिनदेव का उपदेश यह बहिरातमापन त्यागकर । अरे ! अन्तर आतमा परमात्मा का ध्यान धर ||७॥ निजरूप से च्युत बाह्य में स्फुरितबुद्धि जीव यह । देहादि में अपनत्व कर बहिरात्मपन धारण करे ||८||
अष्टपाहुड़ : मोक्षपाहुड़ पद्यानुवाद
निज देहसम परदेह को भी जीव जानें मूढ़जन । उन्हें चेतन जान सेवें यद्यपि वे अचेतन ||९|| निजदेह को निज - आतमा परदेह को पर-आतमा ।
ही जानकर ये मूढ़ सुत - दारादि में मोहित रहें ।। १० ।। कुज्ञान में रत और मिथ्याभाव से भावित श्रमण । मद-मोह से आच्छन्न भव-भव देह को ही चाहते ।। ११ ।। जो देह से निरपेक्ष निर्मम निरारंभी योगिजन । निर्द्वन्द रत निजभाव में वे ही श्रमण मुक्ति वरें ।। १२ ।। परद्रव्य में रत बंधे और विरक्त शिवरमणी वरें । जिनदेव का उपदेश बंध- अबंध का संक्षेप में ||१३|| नियम से निज द्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं । सम्यक्त्व - परिणत श्रमण ही क्षय करें करमानन्त हैं ।। १४ ।। किन्तु जो परद्रव्य रत वे श्रमण मिथ्यादृष्टि हैं । मिथ्यात्व परिणत वे श्रमण दुष्टाष्ट कर्मों से बंधे ।। १५ ।। परद्रव्य से हो दुर्गति निजद्रव्य से होती सुगति । यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति ।। १६ ।। जो आतमा से भिन्न चित्ताचित्त एवं मिश्र हैं । उन सर्वद्रव्यों को अरे ! परद्रव्य जिनवर ने कहा ।। १७ ।। दुष्टाष्ट कर्मों से रहित जो ज्ञानविग्रह शुद्ध है । वह नित्य अनुपम आतमा स्वद्रव्य जिनवर ने कहा ।। १८ ।। परद्रव्य से हो पराङ्गमुख निजद्रव्य को जो ध्यावते । जिनमार्ग में संलग्न वे निर्वाणपद को प्राप्त हों ।। १९ ।। शुद्धात्मा को ध्यावते जो योगि जिनवरमत विषै । निर्वाणपद को प्राप्त हों तब क्यों न पावें स्वर्ग वे ।। २० ।। गुरु भार लेकर एक दिन में जाँय जो योजन शतक । जावे न क्यों क्रोशार्द्ध में इस भुवनतल में लोक में ।। २१ ।।
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