SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ अध्यात्मनवनीत जो अमर अनुपम अतुल शिव अर परम उत्तमविमल है। पाचुके ऐसा मुक्ति सुख जिनभावना भा नेक नर ।। १६२ ।। जो निरंजन हैं नित्य हैं त्रैलोक्य महिमावंत हैं । वे सिद्ध दर्शन - ज्ञान अर चारित्र शुद्धि दें हमें ।।१६३ ।। इससे अधिक क्या कहें हम धर्मार्थकाम रु मोक्ष में । या अन्य सब ही कार्य में है भाव की ही मुख्यता ।। १६४ । । इसतरह यह सर्वज्ञ भासित भावपाहुड जानिये । भाव से जो पढ़ें अविचल थान को वे पायेंगे ।। १६५ ।। -0 मोक्षपाहुड़ परद्रव्य को परित्याग पाया ज्ञानमय निज आतमा । शत बार उनको हो नमन निष्कर्म जो परमातमा ।। १ । परमपदथित शुध अपरिमित ज्ञान-दर्शनमय प्रभु । को नमन कर हे योगिजन ! परमात्म का वर्णन करूँ ।। २ ।। योगस्थ योगीजन अनवरत अरे! जिसको जान कर । अनंत अव्याबाध अनुपम मोक्ष की प्राप्ति करें ||३|| त्रिविध आतमराम में बहिरातमापन त्यागकर । अन्तरात्म के आधार से परमात्मा का ध्यान धर ||४|| ये इन्द्रियाँ बहिरातमा अनुभूति अन्तर आतमा । जो कर्ममल से रहित हैं वे देव हैं परमातमा ||५|| है परमजिन परमेष्ठी है शिवंकर जिन शास्वता । केवल अनिन्द्रिय सिद्ध है कल-मलरहित शुद्धातमा ||६|| जिनदेव का उपदेश यह बहिरातमापन त्यागकर । अरे ! अन्तर आतमा परमात्मा का ध्यान धर ||७॥ निजरूप से च्युत बाह्य में स्फुरितबुद्धि जीव यह । देहादि में अपनत्व कर बहिरात्मपन धारण करे ||८|| अष्टपाहुड़ : मोक्षपाहुड़ पद्यानुवाद निज देहसम परदेह को भी जीव जानें मूढ़जन । उन्हें चेतन जान सेवें यद्यपि वे अचेतन ||९|| निजदेह को निज - आतमा परदेह को पर-आतमा । ही जानकर ये मूढ़ सुत - दारादि में मोहित रहें ।। १० ।। कुज्ञान में रत और मिथ्याभाव से भावित श्रमण । मद-मोह से आच्छन्न भव-भव देह को ही चाहते ।। ११ ।। जो देह से निरपेक्ष निर्मम निरारंभी योगिजन । निर्द्वन्द रत निजभाव में वे ही श्रमण मुक्ति वरें ।। १२ ।। परद्रव्य में रत बंधे और विरक्त शिवरमणी वरें । जिनदेव का उपदेश बंध- अबंध का संक्षेप में ||१३|| नियम से निज द्रव्य में रत श्रमण सम्यकवंत हैं । सम्यक्त्व - परिणत श्रमण ही क्षय करें करमानन्त हैं ।। १४ ।। किन्तु जो परद्रव्य रत वे श्रमण मिथ्यादृष्टि हैं । मिथ्यात्व परिणत वे श्रमण दुष्टाष्ट कर्मों से बंधे ।। १५ ।। परद्रव्य से हो दुर्गति निजद्रव्य से होती सुगति । यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति ।। १६ ।। जो आतमा से भिन्न चित्ताचित्त एवं मिश्र हैं । उन सर्वद्रव्यों को अरे ! परद्रव्य जिनवर ने कहा ।। १७ ।। दुष्टाष्ट कर्मों से रहित जो ज्ञानविग्रह शुद्ध है । वह नित्य अनुपम आतमा स्वद्रव्य जिनवर ने कहा ।। १८ ।। परद्रव्य से हो पराङ्गमुख निजद्रव्य को जो ध्यावते । जिनमार्ग में संलग्न वे निर्वाणपद को प्राप्त हों ।। १९ ।। शुद्धात्मा को ध्यावते जो योगि जिनवरमत विषै । निर्वाणपद को प्राप्त हों तब क्यों न पावें स्वर्ग वे ।। २० ।। गुरु भार लेकर एक दिन में जाँय जो योजन शतक । जावे न क्यों क्रोशार्द्ध में इस भुवनतल में लोक में ।। २१ ।। १८७
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy