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________________ १८५ १८४ अध्यात्मनवनीत यदि भवभ्रमण से ऊबकर तू चाहता कल्याण है । तोमन वचन अर काय से सब प्राणियों को अभयदे ।।१३६।। अक्रियावादी चुरासी बत्तीस विनयावादि हैं। सौ और अस्सी क्रियावादी सरसठ अरे अज्ञानि हैं ।।१३७ ।। गुड़-दूध पीकर सर्प ज्यों विषरहित होता है नहीं । अभव्य त्यों जिनधर्म सुन अपना स्वभाव तजे नहीं ।।१३८।। मिथ्यात्व से आछन्नबुद्धि अभव्य दुर्मति दोष से। जिनवरकथित जिनधर्म की श्रद्धा कभी करता नहीं।।१३९।। तप तपें कुत्सित और कुत्सित साधु की भक्ति करें। कुत्सित गति को प्राप्त हों रे मूढ़ कुत्सितधर्मरत ।।१४०।। कुनय अर कुशास्त्र मोहित जीव मिथ्यावास में । घूमा अनादिकाल से हे धीर ! सोच विचार कर ।।१४१।। तीन शत त्रिषष्ठि पाखण्डी मतों को छोड़कर । जिनमार्ग में मन लगा इससे अधिक मुनिवर क्या कहें।।१४२।। अरे समकित रहित साधु सचल मुरदा जानियें। अपूज्य है ज्यों लोक में शव त्योंहि चलशव मानिये ।।१४३।। तारागणों में चन्द्र ज्यों अर मृगों में मृगराज ज्यों। श्रमण-श्रावक धर्म में त्यों एक समकित जानिये।।१४४।। नागेन्द्र के शुभ सहसफण में शोभता माणिक्य ज्यों। अरे समकित शोभता त्यों मोक्ष के मारग विथें ।।१४५।। चन्द्र तारागण सहित ही लसे नभ में जिसतरह । व्रत तप तथा दर्शन सहित जिनलिंग शोभे उसतरह ।।१४६।। इमि जानकर गुण-दोष मुक्ति महल की सीढ़ी प्रथम । गुण रतन में सार समकित रतन को धारण करो ।।१४७ ।। देहमित अर कर्ता-भोक्ता जीव दर्शन-ज्ञानमय । अनादि अनिधन अमूर्तिक है कहा जिनवरदेव ने ।।१४८।। अष्टपाहुड़: भावपाहुड़ पद्यानुवाद जिन भावना से सहित भवि दर्शनावरण-ज्ञानावरण । अर मोहनी अन्तराय का जड़ मूल से मर्दन करें ।।१४९।। हो घातियों का नाश दर्शन-ज्ञान-सुख-बल अनंते । हो प्रगट आतम माहिं लोकालोक आलोकित करें ।।१५०।। यह आत्मा परमात्मा शिव विष्णु ब्रह्मा बुद्ध है। ज्ञानि है परमेष्ठि है सर्वज्ञ कर्म विमुक्त है।।१५१।। घन-घाति कर्म विमुक्त अर त्रिभुवनसदन संदीप जो। अर दोष अष्टादश रहित वे देव उत्तम बोधि दें ।।१५२।। जिनवर चरण में नमें जो नर परम भक्तिभाव से । वर भाव से वे उखाड़े भवबेलि को जड़मूल से ।।१५३।। जल में रहें पर कमल पत्ते लिप्त होते हैं नहीं । सत्पुरुष विषय-कषाय में त्यों लिप्त होते हैं नहीं ।।१५४।। सब शील संयम गुण सहित जो उन्हें हम मुनिवर कहें। बहु दोष के आवास जो हैं अरे श्रावक सम न वे ।।१५५।। जीते जिन्होंने प्रबल दुर्द्धर अर अजेय कषाय भट । रे क्षमादम तलवार से वे धीर हैं वे वीर हैं ।।१५६।। विषय सागर में पड़े भवि ज्ञान-दर्शन करों से । जिनने उतारे पार जग में धन्य हैं भगवंत वे ।।१५७ ।। पुष्पित विषयमय पुष्पों से अर मोहवृक्षारूढ़ जो । अशेष माया बेलि को मुनि ज्ञानकरवत काटते ।।१५८।। मोहमद गौरवरहित करुणासहित मुनिराज जो । अरे पापस्तंभ को चारित खड़ग से काटते ।।१५९।। सद्गुणों की मणिमाल जिनमत गगन में मुनि निशाकर । तारावली परिवेष्ठित हैं शोभते पूर्णेन्दु सम ।।१६०।। चक्रधर बलराम केशव इन्द्र जिनवर गणपति । अर ऋद्धियों को पा चुके जिनके हैं भाव विशुद्धवर ।।१६१।।
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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