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अध्यात्मनवनीत असार है संसार सब यह जान उत्तम बोधि की। अविकार मन से भावना भा अरे दीक्षाकाल सम ।।११०।। अंतरंग शुद्धिपूर्वक तू चतुर्विध द्रवलिंग धर । क्योंकि भाव बिना द्रवलिंग कार्यकारी है नहीं।।१११।। आहार भय मैथुन परीग्रह चार संज्ञा धारकर । भ्रमा भववन में अनादिकाल से हो अन्य वश ।।११२।। भावशुद्धिपूर्वक पूजादि लाभ न चाहकर। निज शक्ति से धारण करो आतपन आदि योग को ।।११३।। प्रथम द्वितीय तृतीय एवं चतुर्थ पंचम तत्त्व की। आद्यन्तरहित त्रिवर्ग हर निज आत्मा की भावना ।।११४।। भावों निरन्तर बिना इसके चिन्तवन अर ध्यान के। जरा-मरण से रहित सुखमय मुक्ति की प्राप्ति नहीं।।११५।। परिणाम से ही पाप सब अर पुण्य सब परिणाम से। यह जैनशासन में कहा बंधमोक्ष भी परिणाम से ।।११६।। जिनवचपरान्मुख जीव यह मिथ्यात्व और कषाय से। ही बांधते हैं करम अशुभ असंयम से योग से ।।११७।। भावशुद्धीवंत अर जिन-वचन अराधक जीव ही। हैं बाँधते शुभकर्म यह संक्षेप में बंधन-कथा ॥११८।। अष्टकर्मों से बंधा हूँ अब इन्हें मैं दग्धकर। ज्ञानादिगुण की चेतना निज में अनंत प्रकट करूँ।।११९।। शील अठदशसहस उत्तर गुण कहे चौरासी लख। भा भावना इन सभी की इससे अधिक क्या कहें हम ।।१२०।। रौद्रात वश चिरकाल से दुःख सहे अगणित आजतक। अब तज इन्हेंध्या धरमसुखमय शुक्ल भव के अन्ततक।।१२१।। इन्द्रिय-सुखाकुल द्रव्यलिंगी कर्मतरु नहिं काटते । पर भावलिंगी भवतरु को ध्यान करवत काटते ।।१२२।।
अष्टपाहुड़: भावपाहुड़ पद्यानुवाद
१८३ ज्यों गर्भगृह में दीप जलता पवन से निर्बाध हो। त्यों जले निज में ध्यान दीपक राग से निर्बाध हो ।।१२३।। शुद्धात्म एवं पंचगुरु का ध्यान धर इस लोक में। वे परम मंगल परम उत्तम और वे ही हैं शरण ।।१२४।। आनन्दमय मृतु जरा व्याधि वेदना से मुक्त जो। वह ज्ञानमयशीतल विमल जल पियोभविजन भाव से।।१२५।। ज्यों बीज के जल जाने पर अंकुर नहीं उत्पन्न हो। कर्मबीज के जल जाने पर न भवांकुर उत्पन्न हो ।।१२६।। भावलिंगी सुखी होते द्रव्यलिंगी दुःख लहें। गुण-दोष को पहिचानकर सब भाव से मुनिपद गहें।।१२७।। भाव से जो हैं श्रमण जिनवर कहें संक्षेप में। सब अभ्युदय के साथ ही वे तीर्थकर गणधर बनें ।।१२८ ।। जो ज्ञान-दर्शन-चरण से हैं शुद्ध माया रहित हैं। रे धन्य हैं वे भावलिंगी संत उनको नमन है ।।१२९।। जो धीर हैं गम्भीर हैं जिन भावना से सहित हैं। वे ऋद्धियों में मुग्ध न हों अमर विद्याधरों की ।।१३०।। इन ऋद्धियों से इसतरह निरपेक्ष हों जो मुनि धवल । क्यों अरे चाहें वे मुनी निस्सार नरसुर सुखों को ।।१३१।। करले भला तबतलक जबतक वृद्धपन आवे नहीं। अरे देह में न रोग हो बल इन्द्रियों का ना घटे ।।१३२।। छह काय की रक्षा करो षट् अनायतन को त्यागकर।
और मन-वच-काय से तू ध्या सदा निज आतमा ।।१३३।। भवभ्रमण करते आजतक मन-वचन एवं काय से । दश प्राणों का भोजन किया निज पेट भरने के लिये ।।१३४।। इन प्राणियों के घात से योनी चौरासी लाख में । बस जन्मते मरते हुये, दुख सहे तूने आजतक ।।१३५।।