________________
१८०
अध्यात्मनवनीत अर पुण्य भी है धर्म - ऐसा जान जो श्रद्धा करें। वे भोग की प्राप्ति करें पर कर्म क्षय न कर सकें।।८४।। रागादि विरहित आतमा रत आतमा ही धर्म है। भव तरण-तारण धर्म यह जिनवर कथन का मर्म है ।।८५।। जो नहीं चाहे आतमा अर पुण्य ही करता रहे। वह मुक्ति को पाता नहीं संसार में रुलता रहे ।।८६।। इसलिए पूरी शक्ति से निज आतमा को जानकर । श्रद्धा करो उसमें रमो नित मुक्तिपद पा जाओगे।।८७।। सप्तम नरक में गया तन्दुल मत्स्य हिंसक भाव से। यह जानकर हे आत्मन् ! नित करो आतमभावना ।।८८।। आतमा की भावना बिन गिरि-गुफा आवास सब। अर ज्ञान अध्ययन आदि सब करनी निरर्थक जानिये ।।८९।। इन लोकरंजक बाह्यव्रत से अरे कुछ होगा नहीं। इसलिए पूर्ण प्रयत्न से मन इन्द्रियों को वश करो।।१०।। मिथ्यात्व अर नोकषायों को तजो शुद्ध स्वभाव से। देव प्रवचन गुरु की भक्ति करो आदेश यह ।।११।। तीर्थंकरों ने कहा गणधरदेव ने गूंथा जिसे। शुद्धभाव से भावो निरन्तर उस अतुल श्रुतज्ञान को ।।१२।। श्रुतज्ञानजल के पान से ही शान्त हो भवदुखतृषा। त्रैलोक्यचूडामणी शिवपद प्राप्त हो आनन्दमय ।।१३।। जिनवरकथित बाईस परीषह सहो नित समचित्त हो। बचो संयमघात से हे मुनि ! नित अप्रमत्त हो ।।१४।। जल में रहे चिरकाल पर पत्थर कभी भिदता नहीं। त्यों परीषह उपसर्ग से साधु कभी भिदता नहीं ।।९५।। भावना द्वादश तथा पच्चीस व्रत की भावना । भावना बिन मात्र कोरे वेष से क्या लाभ है।।९।।
अष्टपाहुड़: भावपाहुड़ पद्यानुवाद
१८१ है सर्वविरती तथापि तत्त्वार्थ की भा भावना। गुणथान जीवसमास की भी तू सदा भा भावना ।।९७।। भयंकर भव-वन विर्षे भ्रमता रहा आशक्त हो। बस इसलिए नवकोटि से ब्रह्मचर्य को धारण करो ।।१८।। भाववाले साधु साधे चतुर्विध आराधना। पर भाव विरहित भटकते चिरकाल तक संसार में ।।९९।। तिर्यंच मनुज कुदेव होकर द्रव्यलिंगी दुःख लहें। पर भावलिंगी सुखी हों आनन्दमय अपवर्ग में ।।१००।। अशुद्धभावों से छियालिस दोष दूषित असन कर। तिर्यंचगति में दुख अनेकों बार भोगे विवश हो ।।१०१।। अतिगृद्धता अर दर्प से रे सचित्त भोजन पान कर। अति दुःख पाये अनादि से इसका भी जरा विचार कर ।।१०२।। अर कंद मूल बीज फूल पत्र आदि सचित्त सब । सेवन किये मदमत्त होकर भ्रमे भव में आजतक ।।१०३।। विनय पंच प्रकार पालो मन वचन अर काय से।
अविनयी को मुक्ति की प्राप्ति कभी होती नहीं।।१०४।। निजशक्ति के अनुसार प्रतिदिन भक्तिपूर्वक चाव से। हे महायश! तुम करो वैयावृत्ति दशविध भाव से ।।१०५।। अरे मन वचन काय से यदि हो गया कुछ दोष तो। मान माया त्याग कर गुरु के समक्ष प्रगट करो ।।१०६।। निष्ठुर कटुक दुर्जन वचन सत्पुरुष सहें स्वभाव से। सब कर्मनाशन हेतु तुम भी सहो निर्ममभाव से ।।१०७।। अर क्षमामंडित मुनि प्रकट ही पाप सब खण्डित करें। सुरपति उरग-नरनाथ उनके चरण में वंदन करें ।।१०८ ।। यह जानकर हे क्षमागुणमुनि ! मन-वचन अर काय से। सबको क्षमा कर बुझा दो क्रोधादि क्षमास्वभाव से ।।१०९।।