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अध्यात्मनवनीत जो अकेला जीत ले जब कोटि भट संग्राम में । तब एक जन को क्यों न जीते वह सुभट संग्राम में ।।२२।। शुभभाव-तप से स्वर्ग-सुख सब प्राप्त करते लोक में । पाया सो पाया सहजसुख निजध्यान से परलोक में ।।२३।। ज्यों शोधने से शुद्ध होता स्वर्ण बस इसतरह ही । हो आतमा परमातमा कालादि लब्धि प्राप्त कर ।।२४।। ज्यों धूप से छाया में रहना श्रेष्ठ है बस उसतरह । अव्रतों से नरक व्रत से स्वर्ग पाना श्रेष्ठ है ।।२५।। जो भव्यजन संसार-सागर पार होना चाहते । वे कर्म ईंधन-दहन निज शुद्धात्मा को ध्यावते ।।२६।। अरे मुनिजन मान-मद आदिक कषायें छोड़कर । लोक के व्यवहार से हों विरत ध्याते आतमा ।।२७।। मिथ्यात्व एवं पाप-पुन अज्ञान तज मन-वचन से ।
अर मौन रह योगस्थ योगी आतमा को ध्यावते ।।२८।। दिखाई दे जो मुझे वह रूप कुछ जाने नहीं । मैं करूँ किससे बात मैं तो एक ज्ञायकभाव हूँ ।।२९ ।। सर्वास्रवों के रोध से संचित करम खप जाय सब । जिनदेव के इस कथन को योगस्थ योगी जानते ।।३०।। जो सो रहा व्यवहार में वह जागता निज कार्य में । जो जागता व्यवहार में वह सो रहा निज कार्य में ।।३१।। इमि जान जोगी छोड़ सब व्यवहार सर्वप्रकार से । जिनवर कथित परमातमा का ध्यान धरते सदा ही ।।३२।। पंच समिति महाव्रत अर तीन गुप्ति धर यती । रतनत्रय से युक्त होकर ध्यान अर अध्ययन करो ।।३३।। आराधना करते हुये को अराधक कहते सभी । आराधना का फल सुनो बस एक केवलज्ञान है ।।३४।।
अष्टपाहुड़: मोक्षपाहुड़ पद्यानुवाद
सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी आतमा सिध शुद्ध है। यह कहा जिनवरदेव ने तुम स्वयं केवलज्ञानमय ।।३५।। रतन त्रय जिनवर कथित आराधना जो यति करें । वे धरें आतम ध्यान ही संदेह इसमें रंच ना ।।३६।। जानना ही ज्ञान है अरु देखना दर्शन कहा । पुण्य-पाप का परिहार चारित यही जिनवर ने कहा ।।३७।। तत्त्वरुचि सम्यक्त्व है तत्ग्रहण सम्यग्ज्ञान है। जिनदेव ने ऐसा कहा परिहार ही चारित्र है ।।३८।। दृग-शुद्ध हैं वे शुद्ध उनको नियम से निर्वाण हो। दृग-भ्रष्ट हैं जो पुरुष उनको नहीं इच्छित लाभ हो ।।३९।। उपदेश का यह सार जन्म-जरा-मरण का हरणकर । समदृष्टि जो मानें इसे वे श्रमण श्रावक कहे हैं ।।४०।। यह सर्वदर्शी का कथन कि जीव और अजीव की । भिन-भिन्नता को जानना ही एक सम्यग्ज्ञान है ।।४१।। इमि जान करना त्याग सब ही पुण्य एवं पाप का । चारित्र है यह निर्विकल्पक कथन यह जिनदेव का ।।४२।। रतनत्रय से युक्त हो जो तप करे संयम धरे । वह ध्यान धर निज आतमा का परमपद को प्राप्त हो ।।४३।। रुष-राग का परिहार कर त्रययोग से त्रयकाल में । त्रयशल्य विरहित रतनत्रय धर योगि ध्यावे आतमा ।।४४।। जो जीव माया-मान-लालच-क्रोध को तज शुद्ध हो । निर्मल-स्वभाव धरे वही नर परमसुख को प्राप्त हो ।।४५।। जो रुद्र विषय-कषाय युत जिन भावना से रहित हैं। जिनलिंग से हैं पराङ्गमुख वे सिद्धसुख पावें नहीं ।।४६।। जिनवरकथित जिनलिंग ही है सिद्धसुख यदि स्वप्न में। भी ना रुचे तो जान लो भव गहन वन में वे रुलें ।।४७।।