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अध्यात्मनवनीत
प्रवचनसार कलशपद्यानुवाद
इसप्रकार जो प्रतिपादन के अनुसार ।
एक होकर भी अनेक रूप होता है ।। निश्चयनय से तो मात्र एकाग्रता ही।
पर व्यवहार से तीनरूप होता है। ऐसे मोक्षमार्ग के अचलालम्बन से।
ज्ञाता-दृष्टाभाव को निज में ही बाँध ले।। उल्लसित चेतना का अतुल विलास लख।
आत्मीकसुख प्राप्त करे अल्पकाल में ।।१६।। इसप्रकार शुभ उपयोगमयी किंचित् ही।
शुभरूप वृत्ति का सुसेवन करके ।। सम्यक्प्रकार से संयम के सौष्टव से।
आप ही क्रमशर निरवृत्ति करके ।। अरे ज्ञानसूर्य का है अनुपम जो उदय।
सब वस्तुओं को मात्र लीला में ही जानलो ।। ऐसी ज्ञानानन्दमयी दशा एकान्ततः।
अपने में आपही नित अनुभव करो ।।१७।। अब इस शास्त्र के मुकुटमणि के समान ।
पाँच सूत्र निरमल पंचरत्न गाये हैं।। जो जिनदेव अरहंत भगवन्त के।
अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशे हैं।। अद्भुत पंचरत्न भिन्न-भिन्न पंथवाली।
भव-अपवर्ग की व्यतिरेकी दशा को ।। तप्त-संतप्त इस जगत के सामने।
प्रगटित करते हुये जयवंत वर्तो ।।१८।।
(दोहा) स्याद्वादमय नयप्रमाण से दिखे न कुछ भी अन्य। अनंतधर्ममय आत्म में दिखे एक चैतन्य ।।१९।।
(हरिगीत) आनन्द अमृतपूर से भरपूर जो बहती हुई। अरे केवलज्ञान रूपी नदी में डूबा हुआ ।। जो इष्ट है स्पष्ट है उल्लसित है निज आतमा। स्याचिह्नित जिनेन्द्र शासन से उसे पहिचान लो।।२०।। वाणिगुंफन व्याख्या व्याख्येय सारा जगत है।
और अमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता कहे हैं।। इसतरह कह मोह में मत नाचना हे भव्यजन!। स्याद्विद्याबल से निज पा निराकुल होकर नचो।।२१।। चैतन्य का गुणगान तो उतना ही कम जितना करो। थोड़ा-बहुत जो कहा वह सब स्वयंस्वाहा हो गया। निज आतमा को छोड़कर इस जगत में कुछ अन्य ना। इक वही उत्तम तत्त्व है भवि उसी का अनुभव करो।।२२।।
(दोहा) क्रिसमस के दिन चतुर्दशी अगहन सुदशनिवार । पूर्ण हुआ यह विक्रमी इकसठ दोय हजार ।।