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प्रवचनसार कलश पद्यानुवाद
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अध्यात्मनवनीत नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन,
शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये। नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा,
स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ।।५।। आतमा में विद्यमान ज्ञानतत्त्व पहिचान,
पूर्णज्ञान प्राप्त करने के शुद्धभाव से। ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन के उपरान्त अब,
ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन करते हैं चाव से।। सामान्य और असामान्य ज्ञेयतत्त्व सब,
जानने के लिए द्रव्य गुण पर्याय से। मोह अंकुर उत्पन्न न हो इसलिए,
ज्ञेय का स्वरूप बतलाते विस्तार से ।।६।। जिसने बताई भिन्नता भिन्न द्रव्यनि से।
और आतमा एक ओर को हटा दिया ।। जिसने विशेष किये लीन सामान्य में।
और मोहलक्ष्मी को लूट कर भगा दिया।। ऐसे शुद्धनय ने उत्कट विवेक से ही।
निज आतमा का स्वभाव समझा दिया ।। और सम्पूर्ण इस जग से विरक्त कर।
इस आतमा को आतमा में ही लगा दिया।।७।। इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर।
करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया ।। इस भाँति आतमा का तत्त्व उपलब्ध कर।
कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया ।।
ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल।
सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया ।। आपनी ही महिमामय परकाशमान । रहेगा अनंतकाल जैसा सुख पा लिया ।।८।।
(दोहा) अरे द्रव्य सामान्य का अबतक किया बखान । अब तो द्रव्यविशेष का करते हैं व्याख्यान ।।९।। ज्ञेयतत्त्व के ज्ञान के प्रतिपादक जो शब्द । उनमें डुबकी लगाकर निज में रहें अशब्द ।।१०।। शुद्ध ब्रह्म को प्राप्त कर जग को कर अब ज्ञेय । स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही एकमात्र श्रद्धेय ।।११।। चरण द्रव्य अनुसार हो द्रव्य चरण अनुसार। शिवपथगामी बनो तुम दोनों के अनुसार ।।१२।। द्रव्यसिद्धि से चरण अर चरण सिद्धि से द्रव्य । यह लखकर सब आचरो द्रव्यों से अविरुद्ध ।।१३।। जो कहने के योग्य है कहा गया वह सब्ब । इतने से ही चेत लो अति से क्या है अब्ब ।।१४।।
(मनहरण कवित्त) उतसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा ।
भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है।। पुराणपुरुषों के द्वारा सादर हैं सेवित जो।
उन्हें प्राप्तकर संत हुए जो पवित्र हैं ।। चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप ।
जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में ।। क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके।
सभी ओर से सदा वास करो निज में ।।१५।।