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अध्यात्मनवनीत
जो श्रमणजन को देखकर विद्वेष से वर्तन करें। अपवाद उनका करें तो चारित्र उनका नष्ट हो । । २६५ ॥ स्वयं गुण से हीन हों पर जो गुणों से अधिक हों । चाहे उनसे नमन तो फिर अनंतसंसारी हैं वे ।। २६६ ॥ जो स्वयं गुणवान हों पर हीन को वंदन करें। दृगमोह में उपयुक्त वे चारित्र से भी भ्रष्ट हैं ।। २६७॥ सूत्रार्थविद जितकषायी अर तपस्वी हैं किन्तु यदि । लौकिकजनों की संगति न तजे तो संयत नहीं ।। २६८ ।। निर्ग्रन्थ हों तपयुक्त संयमयुक्त हों पर व्यस्त हों । इहलोक के व्यवहार में तो उन्हें लौकिक ही कहा ।। २६९ ।। यदि चाहते हो मुक्त होना दुखों से तो जान लो । गुणाधिक या समान गुण से युक्त की संगति करो ।। २७० ।। पंचरत्न अधिकार
अयथार्थग्राही तत्त्व के हों भले ही जिनमार्ग में । कर्मफल से आभरित भवभ्रमे भावीकाल में ।। २७१ ।। यथार्थग्राही तत्त्व के अर रहित अयथाचार से । प्रशान्तात्मा श्रमण वे ना भवभ्रमे चिरकाल तक ।। २७२ ।। यथार्थ जाने अर्थ दो विध परिग्रह को छोड़कर । ना विषय में आसक्त वे ही श्रमण शुद्ध कहे गये । । २७३ ।। है ज्ञान - दर्शन शुद्धता निज शुद्धता श्रामण्य है । हो शुद्ध को निर्वाण शत-शत बार उनको नमन है ।। २७४ || जो श्रमण-श्रावक जानते जिनवचन के इस सार को। वे प्राप्त करते शीघ्र ही निज आत्मा के सार को ।। २७५ ।।
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प्रवचनसार कलश पद्यानुवाद (दोहा) स्वानुभूति से जो प्रगट सर्वव्यापि चिद्रूप । ज्ञान और आनन्दमय नमो परात्मस्वरूप ॥१॥ महामोहतम को करे क्रीड़ा में निस्तेज । सब जग आलोकित करे अनेकान्तमय तेज ॥२॥ प्यासे परमानन्द के भव्यों के हित हेतु । वृत्ति प्रवचनसार की करता हूँ भवसेतु || ३ || ( मनहरण कवित्त )
जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब ।
अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा ।। भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।
द्रव्य जाने एक ही समय में शुद्धातमा ।। मोह का अभाव पररूप परिणमें नहीं । सभी ज्ञेय पीके बैठा ज्ञानमूर्ति आतमा ।। पृथक्-पृथक् सब जानते हुए भी ये ।
सदा
मुक्त रहें अरिहंत परमातमा ||४|| विलीन मोह - राग-द्वेष मेघ चहुं ओर के,
चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये । अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये ।।