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________________ अष्टपाहुड पद्यानुवाद दर्शनपाहुड़ (हरिगीत) कर नमन जिनवर वृषभ एवं वीर श्री वर्द्धमान को। संक्षिप्त दिग्दर्शन यथाक्रम करूँ दर्शनमार्ग का ।।१।। सद्धर्म का है मूल दर्शन जिनवरेन्द्रों ने कहा। हे कानवालो सुनो! दर्शनहीन वंदन योग्य ना ।।२।। दृगभ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं उनको कभी निर्वाण ना। हों सिद्ध चारित्रभ्रष्ट पर दृगभ्रष्ट को निर्वाण ना ।।३।। जो जानते हों शास्त्र सब पर भ्रष्ट हों सम्यक्त्व से। घूमें सदा संसार में आराधना से रहित वे।।४।। यद्यपि करें वे उग्रतप शत-सहस-कोटि वर्ष तक। पर रत्नत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व विरहित साधु सब ।।५।। सम्यक्त्व दर्शन ज्ञान बल अर वीर्य से वर्द्धमान जो। वे शीघ्र ही सर्वज्ञ हों, कलिकलुसकल्मस रहित जो।।६।। सम्यक्त्व की जलधार जिनके नित्य बहती हृदय में। वे कर्मरज से ना बंधे पहले बंधे भी नष्ट हों।।७।। जो ज्ञान-दर्शन-भ्रष्ट हैं चारित्र से भी भ्रष्ट हैं। वे भ्रष्ट करते अन्य को वे भ्रष्ट से भी भ्रष्ट हैं।।८।। तपशील संयम व्रत नियम अर योग गुण से युक्त हों। फिर भी उन्हें वे दोष दें जो स्वयं दर्शन भ्रष्ट हों।।९।। जिस तरह द्रुम परिवार की वृद्धि न हो जड़ के बिना। बस उस तरह ना मुक्ति हो जिनमार्ग में दर्शन बिना ।।१०।। अष्टपाहुड़: दर्शनपाहुड़ पद्यानुवाद १६१ मूल ही है मूल ज्यों शाखादि द्रुम परिवार का। बस उस तरह ही मुक्तिमग का मूल दर्शन को कहा ।।११।। चाहें नमन दृगवन्त से पर स्वयं दर्शनहीन हों। है बोधिदुर्लभ उन्हें भी वे भी वचन-पग हीन हों।।१२।। जो लाज गारव और भयवश पूजते दृगभ्रष्ट को। की पाप की अनुमोदना ना बोधि उनको प्राप्त हो ।।१३।। त्रैयोग से हों संयमी निर्ग्रन्थ अन्तर-बाह्य से। त्रिकरण शुध अर पाणिपात्री मुनीन्द्रजन दर्शन कहे ।।१४।। सम्यक्त्व से हो ज्ञान सम्यक् ज्ञान से सब जानना। सब जानने से ज्ञान होता श्रेय अर अश्रेय का ।।१५।। श्रेयाश्रेय के परिज्ञान से दुःशील का परित्याग हो। अर शील से हो अभ्युदय अर अन्त में निर्वाण हो ।।१६।। जिनवचन अमृत औषधी जरमरणव्याधि के हरण। अर विषयसुख के विरेचक हैं सर्वदुःख के क्षयकरण ।।१७।। एक जिनवर लिंग है उत्कृष्ट श्रावक दूसरा । अर कोई चौथा है नहीं, पर आर्यिका का तीसरा ।।१८।। छह द्रव्य नव तत्त्वार्थ जिनवर देव ने जैसे कहे। है वही सम्यग्दृष्टि जो उस रूप में ही श्रद्धहै ।।१९।। जीवादि का श्रद्धान ही व्यवहार से सम्यक्त्व है। पर नियतनय से आत्म का श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।।२०।। जिनवरकथित सम्यक्त्व यह गुण रतनत्रय में सार है। सद्भाव से धारण करो यह मोक्ष का सोपान है ।।२१।। जो शक्य हो वह करें और अशक्य की श्रद्धा करें। श्रद्धान ही सम्यक्त्व है इस भाँति सब जिनवर कहें ।।२२।। ज्ञान दर्शन चरण में जो नित्य ही संलग्न हैं। गणधर करें गुण कथन जिनके वे मुनीजन वंद्य हैं।।२३।।
SR No.008335
Book TitleAdhyatma Navneet
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, Ritual, & Vidhi
File Size333 KB
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