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अध्यात्मनवनीत विशुद्धतम परिणाम से शुभतम करम का बंध हो। संक्लेशतम से अशुभतम अर जघन हो विपरीत से ।।१३।। सप्रदेशी आतमा रुस-राग-मोह कषाययुत । हो कर्मरज से लिप्त यह ही बंध है जिनवर कहा ।।१८८।। यह बंध का संक्षेप जिनवरदेव ने यतिवृन्द से। नियतनय से कहा है व्यवहार इससे अन्य है।।१८९।। तन-धनादि में 'मैं हूँ यह' अथवा 'ये मेरे हैं' सही। ममता न छोड़े वह श्रमण उनमार्गी जिनवर कहें।।१९०।। पर का नहीं ना मेरे पर मैं एक ही ज्ञानात्मा। जो ध्यान में इस भाँति ध्यावे है वही शुद्धात्मा ।।१९१।। इसतरह मैं आतमा को ज्ञानमय दर्शनमयी। ध्रुव अचल अवलंबन रहित इन्द्रियरहित शुध मानता ।।१९२।। अरि-मित्रजनधन्य-धान्यसुख-दुखदेह कुछभी ध्रुव नहीं। इस जीव के ध्रुव एक ही उपयोगमय यह आतमा ।।१९३।। यह जान जो शुद्धातमा ध्यावें सदा परमातमा । दुठ मोह की दुर्ग्रन्थि का भेदन करें वे आतमा ।।१९४।। मोहग्रन्थी राग-रुष तज सदा ही सुख-दुःख में। समभाव हो वह श्रमण ही बस अखयसुख धारण करें।।१९५।। आत्मध्याता श्रमण वह इन्द्रियविषय जो परिहरे । स्वभावथित अवरुद्ध मन वह मोहमल का क्षय करे ।।१९६।। घन घातिकर्म विनाश कर प्रत्यक्ष जाने सभी को। संदेहविरहित ज्ञेय ज्ञायक ध्यावते किस वस्तु को ।।१९७।। अतीन्द्रिय जिन अनिन्द्रिय अर सर्व बाधा रहित हैं। चहुँ ओर से सुख-ज्ञान से समृद्ध ध्यावे परमसुख ।।१९८।। निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने। निर्वाण अर निर्वाणमग को नमन बारंबार हो ।।१९९।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १३
प्रवचनसार पद्यानुवाद
१४७ इसलिए इस विधि आतमा ज्ञायकस्वभावी जानकर। निर्ममत्व में स्थित मैं सदा ही भाव ममता त्याग कर ।।२००।। सुशुद्धदर्शनज्ञानमय उपयोग अन्तरलीन जिन। बाधारहित सुखसहित साधु सिद्ध को शत्-शत् नमन ।।१४।।
चरणानुयोगसूचकचूलिका महाधिकार
आचरणप्रज्ञापनाधिकार हे भव्यजन ! यदि भवदुखों से मुक्त होना चाहते। परमेष्ठियों को कर नमन श्रामण्य को धारण करो।।२०१।। वृद्धजन तिय-पुत्र-बंधुवर्ग से ले अनुमति । वीर्य-दर्शन-ज्ञान-तप-चारित्र अंगीकार कर ।।२०२।। रूप कुल वयवान गुणमय श्रमणजन को इष्ट जो। ऐसे गणी को नमन करके शरण ले अनुग्रहीत हो ।।२०३।। रे दूसरों का मैं नहीं ना दूसरे मेरे रहे। संकल्प कर हो जितेन्द्रिय नग्नत्व को धारण करें।।२०४।। श्रृंगार अर हिंसा रहित अर केशलुंचन अकिंचन। यथाजातस्वरूप ही जिनवरकथित बहिर्लिंग है ।।२०५।। आरंभ-मूर्छा से रहित पर की अपेक्षा से रहित । शुधयोग अर उपयोगसेजिनकथित अंतरलिंगहै।।२०६।।युग्मम्।। जो परमगुरुनम लिंग दोनों प्राप्त कर व्रत आचरें। आत्मथित वे श्रमण ही बस यथायोग्य क्रिया करें ।।२०७।। व्रत समिति इन्द्रिय रोध लुंचन अचेलक अस्नान व्रत। ना दन्त-धोवन क्षिति-शयन अर खड़े हो भोजन करें।।२०८।। दिन में करें इकबार ही ये मूलगुण जिनवर कहें। इनमें रहे नित लीन जोछेदोपथापक श्रमण वह ।।२०९।।युग्मम् ।। दीक्षा समय जो दें प्रव्रज्या वे गुरु दो भेदयुत ।
छेदोपथापक श्रमण हैं अर शेष सब निर्यापका ।।२१०।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १४