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अध्यात्मनवनीत
मैं नहीं पुद्गलमयी मैंने ना बनाया हैं इन्हें । मैं तन नहीं हूँ इसलिए ही देह का कर्ता नहीं । । १६२ ।। अप्रदेशी अणु एक प्रदेशमय अर अशब्द हैं। अर रूक्षता - स्निग्धता से बहुप्रदेशीरूप हैं । । १६३ ।। परमाणु के परिणमन से इक-एक कर बढ़ते हुए । अनंत अविभागी न हो स्निग्ध अर रूक्षत्व से ।। १६४ ।। परमाणुओं का परिणमन सम-विषम अर स्निग्ध हो । अर रूक्ष हो तो बंध हो दो अधिक पर न जघन्य हो ।। १६५ ।। दो अंश चिकने अणु चिकने-रूक्ष हों यदि चार तो । हो बंध अथवा तीन एवं पाँच में भी बंध हो ।।१६६ ।। यदि बहुप्रदेशी कंध सूक्षम थूल हों संस्थान में । तो भूजलादि रूप हों वे स्वयं के परिणमन से ।। १६७ ।। भरा है यह लोक सूक्षम थूल योग्य-अयोग्य जो । कर्मत्व के वे पौद्गलिक उन खंध के संयोग से ।। १६८ ।। स्कन्ध जो कर्मत्व के हों योग्य वे जिय परिणति । पाकर करम में परिणमें न परिणमावे जिय उन्हें ।। १६९ ।। कर्मत्वगत जड़पिण्ड पुद्गल देह से देहान्तर । को प्राप्त करके देह बनते पुन- पुनः वे जीव की ।। १७० ।। यह देह औदारिक तथा हो वैक्रियक या कार्मण । तेजस अहारक पाँच जो वे सभी पुद्गलद्रव्यमय ।। १७१ ।। चैतन्य गुणमय आतमा अव्यक्त अरस अरूप है । जानो अलिंगग्रहण इसे यह अनिर्दिष्ट अशब्द है ।। १७२ ।। मूर्त पुद्गल बंधे नित स्पर्श गुण के योग से । अमूर्त आतम मूर्त पुद्गल कर्म बाँधे किसतरह । । १७३ । । जिसतरह रूपादि विरहित जीव जाने मूर्त को । बस उसतरह ही जीव बाँधे मूर्त पुद्गलकर्म को । । १७४ ।।
प्रवचनसार पद्यानुवाद
प्राप्त कर उपयोगमय जिय विषय विविध प्रकार के । रुष-तुष्ट होकर मुग्ध होकर विविधविध बंधन करे ।। १७५ ।। जिस भाव से आगत विषय को देखे-जाने जीव यह । उसी से अनुरक्त हो जिय विविधविध बंधन करे ।। १७६ ।। स्पर्श से पुद्गल बंधे अर जिय बंधे रागादि से । जीव- पुद्गल बंधे नित ही परस्पर अवगाह से ।। १७७ ।। आतमा सप्रदेश है उन प्रदेशों में पुद्गला । परविष्ट हों अर बंधें अर वे यथायोग्य रहा करें ।। १७८ ।। रागी बाँधे कर्म छूटे राग से जो रहित है । यह बंध का संक्षेप है बस नियतनय का कथन यह ।। १७९ ।। राग-रुष अर मोह ये परिणाम इनसे बंध हो । राग है शुभ-अशुभ किन्तु मोह-रुष तो अशुभ ही । । १८० ।। पर के प्रति शुभभाव पुण पर अशुभ तो बस पाप है । पर दुःखक्षय का हेतु तो बस अनन्यगत परिणाम है । । १८१ ।। पृथ्वी आदि थावरा त्रस कहे जीव निकाय हैं । वे जीव से हैं अन्य एवं जीव उनसे अन्य है ।। १८२ ।। जो न जाने इसतरह स्व और पर को स्वभाव से । वे मोह से मोहित रहे 'ये मैं हँ' अथवा 'मेरा यह ' ।। १८३ ।। निज भाव को करता हुआ निजभाव का कर्ता कहा । और पुद्गल द्रव्यमय सब भाव का कर्ता नहीं । । १८४ । । जीव पुद्गल मध्य रहते हुए पुद्गलकर्म को । जिनवर कहें सब काल में ना ग्रहे-छोड़े- परिणमे ।। १८५ ।। भवदशा में रागादि को करता हुआ यह आतमा । रे कर्मरज से कदाचित् यह ग्रहण होता छूटता । । १८६ ।। रागादियुत जब आतमा परिणमे अशुभ-शुभ भाव में । तब कर्मरज से आवरित हो विविध बंधन में पड़े ।। १८७ ।।
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