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अध्यात्मनवनीत यदि यत्नपूर्वक रहें पर देहिक क्रिया में छेद हो । आलोचना द्वारा अरे उसका करें परिमार्जन ।।२११।। किन्तु यदि यति छेद में उपयुक्त होकर भ्रष्ट हों। तो योग्य गुरु के मार्गदर्शन में करें आलोचना ।।२१२।।युग्मम् ।। हे श्रमणजन! अधिवास में या विवास में बसते हुए। प्रतिबंध के परिहारपूर्वक छेदविरहित ही रहो ।।२१३।। रे ज्ञान-दर्शन में सदा प्रतिबद्ध एवं मूलगुण । जो यत्नत: पालन करें बस हैं वही पूरण श्रमण ।।२१४।। आवास में उपवास में आहार विकथा उपधि में। श्रमणजन व विहार में प्रतिबंध न चाहें श्रमण ।।२१५।। शयन आसन खड़े रहना गमन आदिक क्रिया में। यदि अयत्नाचार है तो सदा हिंसा जानना ।।२१६।। प्राणी मरें या ना मरें हिंसा अयत्नाचार से। तब बंध होता है नहीं जब रहें यत्नाचार से ।।२१७।। हो गमन ईर्यासमिति से पर पैर के संयोग से। हों जीव बाधित या मरण हो फिर भी उनके योग से।।१५।। ना बंध हो उस निमित से ऐसा कहा जिनशास्त्र में। क्योंकि मूर्छा परिग्रह अध्यात्म के आधार में।।१६।।युग्मम् ।। जलकमलवत निर्लेप हैं जो रहें यत्नाचार से। पर अयत्नाचारि तो षट्काय के हिंसक कहे ।।२१८।। बंध हो या न भी हो जिय मरे तन की क्रिया से। पर परिग्रह से बंध हो बस उसे छोड़े श्रमणजन ।।२१९।। यदि भिक्षु के निरपेक्ष न हो त्याग तो शुद्धि न हो। तो कर्मक्षय हो किसतरह अविशुद्ध भावों से कहो।।२२०।। वस्त्र वर्तन यति रखें यदि यह किसी के सूत्र में ।
ही कहा हो तो बताओ यति निरारंभी किसतरह ।।१७।। •आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १५, १६, १७
प्रवचनसार पद्यानुवाद
१४९ रे वस्त्र बर्तन आदि को जो ग्रहण करता है श्रमण । नित चित्त में विक्षेप प्राणारंभ नित उसके रहे ।।१८।। यदि वस्त्र वर्तन ग्रहे धोवे सुखावे रक्षा करे। खो न जावे डर सतावे सतत ही उस श्रमण को।।१९।। उपधि के सद्भाव में आरंभ मूर्छा असंयम । हो फिर कहो परद्रव्यरत निज आत्म साधे किसतरह ।।२२१।। छेद न हो जिसतरह आहार लेवे उसतरह। हो विसर्जन नीहार का भी क्षेत्र काल विचार कर ।।२२२।। मूर्छादि उत्पादन रहित चाहे जिसे न असंयमी। अत्यल्प हो ऐसी उपधि ही अनिंदित अनिषिद्ध है ।।२२३।। जब देह भी है परिग्रह उसको सजाना उचित ना। तो किसतरह हो अन्य सब जिनदेव ने ऐसा कहा ।।२२४।। लोक अर परलोक से निरपेक्ष है जब यह धरम । पृथक् से तब क्यों कहा है नारियों के लिंग को ।।२०।। नारियों को उसी भव में मोक्ष होता ही नहीं। आवरणयुत लिंग उनको इसलिए ही कहा है ।।२१।। प्रकृतिजन्य प्रमादमय होती है उनकी परिणति । प्रमादबहुला नारियों को इसलिए प्रमदा कहा ।।२२।। नारियों के हृदय में हों मोह द्वेष भय घृणा। माया अनेकप्रकार की बस इसलिए निर्वाण ना ।।२३।। एक भी है दोष ना जो नारियों में नहीं हो। अंग भी ना ढके हैं अतएव आवरणी कही ।।२४।। चित्त चंचल शिथिल तन अर रक्त आवे अचानक ।
और उनके सूक्ष्म मानव सदा ही उत्पन्न हों ।।२५।। योनि नाभि काँख एवं स्तनों के मध्य में। सूक्ष्म जिय उत्पन्न होते रहें उनके नित्य ही ।।२६।। • आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त गाथा १८ से २६ तक