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अध्यात्मनवनीत
जयमाला
(दोहा) वैदेही हो देह में, अत: विदेही नाथ । सीमंधर निज सीम में,शाश्वत करो निवास ॥१॥ श्री जिन पूर्व विदेह में, विद्यमान अरहंत ।
वीतराग सर्वज्ञ श्री, सीमंधर भगवंत ।।२।। हे ज्ञानस्वभावी सीमंधर, तुम हो असीम आनंदरूप। अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्यभूप ॥३॥ मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अति प्रचंड। होस्वयं अखंडित कर्म-शत्रुको, किया आपने खंड-खंड ।।४।। गृहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान । आतम-स्वभाव साधन द्वारा, पाया तमने परिपर्ण ज्ञान ।।५।। तुम दर्शनज्ञान-दिवाकर हो, वीरज मंडित आनंदकंद। तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्णचन्द ।।६।। पूरव विदेह में हे जिनवर, हो आप आज भी विद्यमान । हो रहा दिव्य उपदेश, भव्य पा रहे नित्य अध्यात्मज्ञान ।।७।। श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव को मिला आपसे दिव्यज्ञान । आत्मानुभूति से कर प्रमाण, पाया उनने आनन्द महान ।।८।। पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार । समझाया उनने समयसार, हो गये स्वयं वे समयसार ।।९।। दे गये हमें वे समयसार, गा रहे आज हम समयसार। हैसमयसार बस एकसार, हैसमयसार बिन सब असार ।।१०।। मैं हँ स्वभाव से समयसार, परिणति हो जावे समयसार । है यही चाह, है यही राह, जीवन हो जावे समयसार ।।११।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालाय निर्वपामीति स्वाहा।
(सोरठा) समयसार है सार, और सार कुछ है नहीं। महिमा अपरम्पार, समयसारमय आपकी ।।१२।।
पुष्पांजलि क्षिपेत्
बारह भावना
(हरिगीतिका)
१. अनित्यभावना भोर की स्वर्णिम छटा सम क्षणिक सब संयोग हैं। पद्मपत्रों पर पड़े जलबिन्दु सम सब भोग हैं। सान्ध्य दिनकर लालिमा सम लालिमा है भाल की। सब पर पड़ी मनहूस छाया विकट काल कराल की ।।१।। अंजुली-जल सम जवानी क्षीण होती जा रही। प्रत्येक पल जर्जर जरा नजदीक आती जा रही ।। काल की काली घटा प्रत्येक क्षण मंडरा रही। किन्तु पल-पल विषय-तृष्णा तरुण होती जा रही ।।२।। दुखमयी पर्याय क्षणभंगुर सदा कैसे रहे ? अमर है ध्रुव आतमा वह मृत्यु को कैसे वरे ? ध्रुवधाम से जो विमुख वह पर्याय ही संसार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।३।। संयोग क्षणभंगुर सभी पर आतमा ध्रुवधाम है। पर्याय लयधर्मा परन्तु द्रव्य शाश्वत धाम है।। इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है।।४।।
२.अशरणभावना छिद्रमय हो नाव डगमग चल रही मझधार में। दुर्भाग्य से जो पड़ गई दुर्दैव के अधिकार में।। तब शरण होगा कौन जब नाविक डुबा दे धार में। संयोग सब अशरण शरण कोई नहीं संसार में ।।५।।